।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, बुधवार
गीताके प्रत्येक अध्यायका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
सातवाँ अध्याय

सब कुछ वासुदेव ही है, भगवद्रूप ही हैइसका मनुष्यको अनुभव कर लेना चाहिये ।

सूतके मणियोंसे बनी हुई मालामें सूतकी तरह भगवान् ही सब संसारमें ओतप्रोत हैं । पृथ्वी, जल, तेज आदि तत्त्वोंमें; चन्द्र, सूर्य आदि रूपोंमें; सात्त्विक, राजस और तामस भाव, क्रिया आदिमें भगवान् ही परिपूर्ण हैं । ब्रह्म, जीव, क्रिया, संसार, ब्रह्मा और विष्णुरूपसे भगवान् ही है । इस तरह तत्त्वसे सब कुछ भगवान्-ही-भगवान् है ।

आठवाँ अध्याय

अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार ही जीवकी गति होती है, इसलिये मनुष्यको हरदम सावधान रहना चाहिये, जिससे अन्तकालमें भगवत्स्मृति बनी रहे

अन्तसमयमें शरीर छूटते समय मनुष्य जिस वस्तु, व्यक्ति आदिका चिन्तन करता है, उसीके अनुसार उसको आगेका शरीर मिलता है । जो अन्तसमयमें भगवान्का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह भगवान्को ही प्राप्त होता है । उसका फिर जन्म-मरण नहीं होता । अतः मनुष्यको सब समयमें, सभी अवस्थाओंमें और शास्त्रविहित सब काम करते हुए भगवान्को याद रखना चाहिये, जिससे अन्तसमयमें भगवान् ही याद आयें । जीवनभर रागपूर्वक जो कुछ किया जाता है, प्रायः वही अन्तसमयमें याद आता है ।

नवाँ अध्याय

सभी मनुष्य भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, वेश आदिके क्यों न हों । वे सभी भगवान्की तरफ चल सकते हैं, भगवान्का आश्रय लेकर भगवान्को प्राप्त कर सकते हैं ।

भगवान्को इस बातका दुःख है, खेद है, पश्चात्ताप है कि ये जीव मनुष्यशरीर पाकर, मेरी प्राप्तिका अधिकार पाकर भी मेरेको प्राप्त न करके, मेरे पास न आकर मौत-(जन्म-मरण-) में जा रहे है । मेरेसे विमुख होकर कोई तो मेरी अवहेलना करके, कोई आसुरी-सम्पत्तिका आश्रय लेकर और कोई सकामभावसे यज्ञ आदिका अनुष्ठान करके जन्म-मरणके चक्करमें जा रहे हैं । वे पापी-से-पापी हों, किसी नीच योनिमें पैदा हुए हों ओर किसी भी वर्ण, आश्रम, देश, वेश आदिके हों, वे सभी मेरा आश्रय लेकर मेरी प्राप्ति कर सकते है । अतः इस मनुष्यशरीरको पाकर जीवको मेरा भजन करना चाहिये ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे