।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७२, बुधवार
जयाएकादशी-व्रत (सबका)
अभिमान और अहंकारका त्याग सम्भव है


(गत ब्लॉगसे आगेका)
आप इस मैं-पनको बदल देते हैं । गृहस्थ आश्रममें रहते हैं तो कहते हैं कि मैं गृहस्थी हूँ । परन्तु साधु बन जाते हैं तो कहते हैं, मैं साधु हूँ । माता-पिताके सामने कहते हो कि मैं पुत्र हूँ और पुत्रके सामने कहते हो कि मैं पिता हूँ । इसी प्रकार भाईके सामने कहते हो कि मैं भाई हूँ, पत्नीके सामने कहते हो कि मैं पति हूँ । आपसे कोई पूछे कि तुम सच बताओ कि तुम पुत्र हो या पिता हो या पति हो ? तो इसका उत्तर है कि आप स्वयं पुत्र, पिता, भाई, पति कुछ नहीं हो । पुत्र, पिता, भाई, पति आदि दूसरोंके सामने हो । दूसरोंकी अपेक्षासे बने हुए हो । इस मैं-पनको नष्ट करनेके लिये एक बड़ी सुगम बात है कि मैं-पनको शुद्ध कर लिया जाय । शुद्ध कब होता है, शुद्ध उस समय होता है कि जब माता-पिताके सामने जायँ तो वह कार्य करें जो सुपुत्र-से-सुपुत्र करता है । ऐसे ही पत्नीके सामने जायँ तो पतिका पूरा कर्तव्य पालन करें । दूसरे कर्तव्य पालन करें या न करें, इसकी तरफ विशेष ख्याल नहीं करना है । थोड़ा ख्याल इसलिये करना है कि पुत्र आदिको शिक्षा देना हमारा कर्तव्य है । उनको कह देना, समझा देना अपना कर्तव्य है । परन्तु यदि वे कहना न मानें तो दुःख न करें । और हमने तो अपना कर्तव्य-पालन कर दिया इस बातका अभिमान भी न करें । सत्पति अपनी पत्नीके साथ न्याययुक्त, धर्मयुक्त बर्ताव कर दें, फिर चाहे पत्नी आपसे लड़ाई करे, आपको दुःख दे, कर्कश व्यवहार करे । आप अपने कर्तव्यसे मत चूको । ठीक प्रकारसे अपना कर्तव्य पालन करो तो क्या होगा ? आपकामैं-पनशुद्ध हो जायगा ।मैं-पनशुद्ध होनेपर इसे छोड़नेकी ताकत आपमें आ जायगी । परन्तु जबतक अन्यायपूर्वक कार्य करते रहोगे, तबतकमैं-पनऔरमेरे-पन’‒की माया छूटेगी नहीं । परन्तु शुद्ध होनेपर यह छूट जायगी, बाँधेगी नहीं । केवल व्यवहारमात्रके लिये मैं और मेरा रहेगा ।

जैसे आप किसी मिलमें काम करते हैं तो कहते हैं कि मैं अमुक मिलका आदमी हूँ । ऐसे ही रेलवेमें कार्य करते हैं तो कहते हैं कि मैं रेलवे कर्मचारी हूँ । परन्तु सदा अपनेको मिलका या रेलवेका कर्मचारी नहीं मानते । इसी प्रकार आप अपनेको पिता, पुत्र, पति, भाई मानें । ऐसे ही यदि आप धनी हैं तो निर्धनोंकी अपेक्षा धनी हैं; निर्धनोंने ही आपको धनी बनाया है । उदाहरणके लिये यदि नगरमें आप लखपति हैं और बाकी सब करोड़पति हैं तो आप धनी नहीं कहलाते हो । उनके बीच क्या कभी आपके मनमें लखपति होनेका अभिमान आता है ? परन्तु आपके अतिरिक्त यदि सभी निर्धन हैं तो आप धनी तथा लखपति कहलाओगे । अतः इन निर्धनोंके कारण आप धनी हैं । इन्होंने आपको लखपति बनाया । इसलिये आपको निर्धनोंकी सेवा करनी चाहियें । जो उपकार लेता है, परन्तु उपकार करता नहीं, वह कृतघ्न होता है । अतः धनका अभिमान, विद्या-बुद्धिका अभिमान, बलका अभिमान करना गलती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे