Oct
31
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒जैसे भागवतमें भगवान्ने
उद्धवजीको जो उपदेश दिया, उसका नाम ‘उद्धवगीता’
है,
ऐसे ही गीताका नाम
भी ‘अर्जुनगीता' होना चाहिये, फिर इसका नाम 'भगवद्गीता' क्यों हुआ है ?
उत्तर‒भागवतमें तो स्वयं उद्धवजीने भगवान्से
जिज्ञासापूर्वक प्रश्र किये हैं; अतः उनके संवादका नाम ‘उद्धवगीता’ रखना ठीक ही है । परंतु गीता कहनेकी बात तो स्वयं भगवान्के
ही मनमें आयी थी; क्योंकि अर्जुन तो युद्ध करनेके लिये
ही आये थे, उपदेश सुननेके लिये नहीं । गीता कहनेकी
बात मनमें होनेसे ही तो भगवान्ने अर्जुनका रथ पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्यके
सामने खड़ा करके अर्जुनसे ‘हे पार्थ ! इन कुरुवंशियोंको देख’
प्रश्न
उत्तर‒जब भगवान्की माया भी अघटित-घटना-पटीयसी है, तो फिर स्वयं भगवान् थोड़े समयमें बहुत कुछ कह दें, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
महाभारतको देखनेसे मालूम होता है कि समय थोड़ा
नहीं था । अर्जुनने भगवान्से दोनों सेनाओंके बीचमें अपना रथ खड़ा करनेके लिये कहा तो
भगवान्ने अर्जुनके रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कर दिया । जब दोनों सेनाओंके बीचमें
रथ खड़ा हो और उसमें दोनों मित्र आपसमें बातचीत कर रहे हों, तब दोनों सेनाओंमें युद्ध कैसे हो ? अतः दोनों सेनाएँ बड़ी शान्तिसे खड़ी थीं ।
गीताका उपदेश पूरा होनेके बाद युधिष्ठिर निःशस्त्र
होकर कौरवसेनामें गये । उनके साथ भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और भगवान् श्रीकृष्ण भी थे । कौरवसेनामें जाकर
वे भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदिसे मिले और उनके साथ बातचीत भी की । फिर वहाँसे लौटते समय युधिष्टिरने
घोषणा की कि यह सब कौरवसेना मरेगी, अगर कोई बचना चाहे तो वह हमारी सेनामें आ सकता है । युधिष्टिरकी ऐसी घोषणा सुनकर
दुर्योधनका भाई युयुत्सु नगाड़ा बजाते हुए पाण्डवसेनामें चला आया । इसके बाद ही युद्ध
आरम्भ हुआ । इससे भी यही सिद्ध होता है कि गीतोपदेश देनेके लिये पर्याप्त समय था ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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