।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
एकादशी-श्राद्ध, इन्दिरा एकादशीव्रत (सबका)
कारागार‒एक शिक्षालय
(नागपुरके कारागारमें किया गया एक प्रवचन)


(गत ब्लॉगसे आगेका)

इस शरीरके ऊपर गरदनसे खोपड़ीतक यह मीटर लगा है । हम जैसा देखते हैं, जैसा सुनते हैं, जैसा चखते हैं, जैसा स्पर्श करते हैं, जैसा सूँघते हैं, वह सब इस मीटरमें अंकित हो जाता है । हमारे मनमें किसीका नुकसान करनेकी भावना पैदा होती है, तो वह भी इस मीटरमें अंकित हो जाती है । जेलखानेमें पहरा देनेवालोंके गलेमें एक यन्त्र लटका देते हैं । वह जितनी नींद लेता है, उतना उस यन्त्रमें अंकित हो जाता है । इसी तरहसे हमारे भीतर भी ऐसे यन्त्र रखे हुए हैं, जिनके अनुसार आगे दण्डकी और पुरस्कारकी व्यवस्था होगी । वे यह नहीं पूछेंगे कि कितना किया और क्या किया ? ऐसा पूछनेकी जरूरत ही नहीं है, वे खुद ही सब देख लेंगे । यहाँ तो सत्य बुलवानेके लिये पहले आदमीको बेहोश कर देते हैं । उस अवस्थामें जो संस्कार पड़े हुए होते हैं, उसके अनुसार जैसी बात होती है, वह खोल देता है । परन्तु हमारे भीतर ऐसा सुन्दर यन्त्र रखा हुआ है, जिसमें बोलनेकी जरूरत ही नहीं पड़ती ! भीतरके भावोंका अपने-आप पता लग जाता है । उसके अनुसार ही सुखदायी और दुःखदायी परिस्थिति आती है ।

दुःखदायी परिस्थिति जितनी लाभदायक होती है, सुखदायी परिस्थिति उतनी लाभदायक नहीं होती । सुखभोग दीखता तो अच्छा है, पर उसका नतीजा खराब होता है । सुख भोगनेसे पुराने पुण्य नष्ट होते हैं और आदत खराब होती है, जिससे आगे फिर सुख भोगनेकी इच्छा होती है । सुख भोगनेकी इच्छा ही पापोंकी जड़ है । अर्जुनने पूछा कि महाराज, यह मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी इसको जबर्दस्ती पापमें लगानेवाला कौन है ? (गीता ३ । ३६) भगवान्‌ने उत्तर दिया कि सुखभोग और संग्रहकी इच्छा ही पापोंका कारण है । ज्यों-ज्यों मनुष्य अधिक सुख भोगेगा, त्यों-ही-त्यों उसके भीतर भोगोंकी इच्छा बढ़ेगी । वह इच्छा ही आगे उससे पाप करायेगी । पुण्योंका फल‒सुखभोगनेसे पुराने पुण्य नष्ट होते हैं और सुखभोगकी इच्छा पैदा होनेसे पापोंका बीज बोया जाता है, जिससे वह पापी बनता है । इसलिये सुखभोगमें लाभ नहीं है । परंतु दुःख-भोगमें बड़ा भारी लाभ है‒एक तो पुराने पाप नष्ट होते हैं और एक भोगोंसे उपरति होती है कि भोगोंके लिये हमने अमुक-अमुक काम किये, इसलिये दुःख भोगना पड़ा । अतः अब ऐसा पाप नहीं करेंगे‒यह भाव होनेसे वह शुद्ध हो जाता है ।

यह बात देखी हुई है कि कोई आदमी बहुत ज्यादा बीमार हो जाता है तो बीमारीसे उठनेपर उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है । इसकी पहचान यह है कि उसके सामने कोई भगवत्सम्बन्धी बात रखें, भक्तोंका चरित्र रखें तो उसे सुनकर गद्‌गद हो जाता है, आँसू आने लगते हैं । उसको भगवान्‌की बात बड़ी प्यारी लगती है । कारण क्या है ? बीमारीका कष्ट भोगनेसे अन्तःकरण शुद्ध, निर्मल हो जाता है । शुद्ध अन्तःकरणमें भगवान्‌का प्रेम पैदा होता है ! इसी तरहसे आपलोग भी कैद भोगनेसे शुद्ध हो जायँगे । यहाँ रहते हुए अपना भाव, अपनी नीयत अच्छी रखें । इसका नतीजा आपके लिये बहुत उत्तम होगा । जो लोग सुख भोगते हैं और स्वतन्त्रतासे घूमते हैं, उनकी अपेक्षा आप बड़े भाग्यशाली हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे