।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
वैकुण्ठ-चतुर्दशी
भगवान्विष्णु


(गत ब्लॉगसे आगेका)

तात्पर्य है कि एक ही परब्रह्म परमात्मा द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि अनेक रूपोंमें प्रकट होते हैं । उपासकोंकी प्रकृति, श्रद्धा-विश्वास, रुचि आदिको लेकर वे एक ही परमात्मा विष्णु, सूर्य, शिव, गणेश और शक्तिइन पाँच रूपोंको धारण करतै हैं

सौराश्च शैवा गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः ।
मामेव  प्राप्नुवन्तीह   वर्षापः   सागरं   यथा ॥
एकोऽहं पञ्चधा जातः क्रीडया नामभिः किल ।
देवदत्तो यथा कश्चित् पुत्राद्याह्वाननामभिः ॥
                              (पद्मपुराण, उत्तर ९० । ६३-६४)

जैसे वर्षाका जल सब ओरसे समुद्रमें ही जाता है, ऐसे ही विष्णु, सूर्य, शिव, गणेश और शक्तिके उपासक मेरेको ही प्राप्त होते हैं । जैसे एक ही देवदत्त नामक व्यक्ति पुत्र, पिता आदि अनेक नामोंसे पुकारा जाता है, ऐसे ही लीलाके लिये मैं एक ही पाँच रूपोंमें प्रकट होकर अनेक नामोंसे पुकारा जाता हूँ ।

भगवान्के इन पाँचों रूपोंको लेकर पाँच सम्प्रदाय चले हैंवैष्णव, सौर, शैव, गाणपत और शाक्त । साधक किसी भी सम्प्रदायका हो, उसका ऐसा दृढ़ निश्चय रहना चाहिये कि भगवान्के जितने भी रूप हैं, वे सब तत्त्वसे एक ही हैं । रूप दूसरा है, पर तत्त्व दूसरा नहीं है । अगर वह ऐसा दृढ़ निश्चय न कर सके तो वह अपने इष्ट रूपको सर्वोपरि मानकर दूसरे रूपोंको उसका अनुयायी माने । जैसे, उसका इष्ट विष्णु है तो वह ऐसा माने कि सूर्य, शिव आदि सभी देवता विष्णुके उपासक हैं, अनुयायी हैं । ऐसा भी निश्चय न बैठे तो सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदिमें एक ही परमात्मतत्त्व सत्ता-रूपसे विद्यमान हैऐसा मानकर बाहर-भीतरसे चुप (चिन्तनरहित) हो जाय ।

अगर विष्णुका ध्यान करते समय शिव, गणेश आदि याद आ जायें तो ‘मेरे इष्ट ही अपनी मरजीसे शिव आदिके रूपमें आये हैं’‒ऐसा मानकर साधकको प्रसन्न होना चाहिये । अगर संसार याद आ जाय तो भी साधक उसको भगवान्का ही रूप समझे[*]

सम्प्रदायोंमें परस्पर जो राग-द्वेष, खटपट देखी जाती है, उसका कारण बेसमझी है । एक अनुयायी होता है और एक पक्षपाती (जय बोलनेवाला) होता है । अनुयायी तो अपने सम्प्रदायके सिद्धान्तोंका पालन करता है पर पक्षपाती सिद्धान्तोंके पालनका खयाल नहीं करता । खटपट पक्षपातीके द्वारा ही होती है, अनुयायीके द्वारा नहीं ।

जबतक अहम्रहता है, तभीतक दार्शनिक भेद तथा अपने-अपने सम्प्रदायका पक्षपात रहता है । अहम्‌’ का सर्वथा अभाव होनेपर दार्शनिक और साम्प्रदायिक भेद नहीं रहता, प्रत्युत एक तत्त्व रहता है । जहाँ तत्त्व है, वहाँ भेद नहीं है और जहाँ भेद है, वहाँ तत्त्व नहीं है । ऐसा वह तत्त्व ही महाविष्णु, सदाशिव, महाशक्ति, परात्पर परब्रह्म राम तथा कृष्ण आदि नामोंसे कहा जाता है और वही समस्त साधकोंका साध्य-तत्त्व है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे


[*] खं वायुमग्रिं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च  हरेः   शरीरं   यत्   किञ्च   भूतं   प्रणमेदनन्यः ॥
                                                     (श्रीमद्भा ११ । २ । ४१)

आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्रसब-के-सब भगवान्के ही शरीर हैं अर्थात् सभी रूपोंमें स्वयं भगवान् प्रकट हैंऐसा समझकर जो भी भक्तके सामने आ जाता है, उसको वह अनन्य-भावसे प्रणाम करता है ।