(गत ब्लॉगसे आगेका)
सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि संसारमें
सात्त्विक, राजस और तामस जितने भी भाव हैं,
वे सब मेरेसे ही होते हैं,
पर वे मेरेमें और मैं उनमें नहीं हूँ अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं
हूँ । कारण कि गुणोंकी मेरे सिवाय स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है । अतः साधककी दृष्टि
मेरी तरफ ही रहनी चाहिये, गुणोंकी तरफ नहीं । जिनकी दृष्टि गुणोंकी तरफ रहती है,
वे इन सात्त्विक, राजस और तामस भावोंसे मोहित हो जाते हैं,
इनमें ही रच-पच जाते हैं । अतः वे गुणोंसे परे मेरेको नहीं जानते
(७ । १३) । मेरी यह गुणमयी माया तरनेमें बड़ी ही कठिन है‒‘दैवी
ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया’;
परंतु जो केवल मेरी ही शरण हो जाते हैं,
मेरे ही आश्रित रहते हैं,
वे इस मायाको तर जाते हैं‒‘मामेव
ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’
(७ । १४) । तात्पर्य यह हुआ कि जो मनुष्य इन गुणोंसे सर्वथा विमुख होकर केवल मेरे ही सम्मुख
हो जाता है, वह गुणोंसे तर जाता है ।
तेरहवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें आये ‘सर्वेन्द्रियगुणाभासम्’ पदमें ‘सर्वेन्द्रियगुण’ शब्द इन्द्रियोंके पाँचों विषयों-(शब्द,
स्पर्श, रूप, रस और ग्रन्थ-) का वाचक है । इन इन्द्रियोंको और इनके विषयोंको
ज्ञेयतत्त्व परमात्मा ही प्रकाशित करता है । वह ज्ञेय-तत्त्व सत्त्व,
रज और तम‒इन तीनों गुणोंसे रहित भी है और इन गुणोंका भोक्ता
भी है अर्थात् वह तत्त्व निर्गुण भी है और सगुण भी है‒‘निर्गुणं
गुणभोक्तृ च’
।
तेरहवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष-(क्षेत्रज्ञ-)
का वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि प्रकृति और पुरुष‒दोनों
अलग-अलग हैं अर्थात् प्रकृतिसे पुरुष (चेतन) अलग है । उस प्रकृतिसे ही विकार,
गुण और कार्य एवं करणके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ‒ये तीनों होते
हैं । अतः इन तीनोंमेंसे किसीके भी साथ पुरुषका सम्बन्ध नहीं है । परंतु पुरुष जब प्रकृतिमें
स्थित होता है, प्रकृतिके साथ तादात्म्य कर लेता है,
तब वह (प्रकृतिस्थ पुरुष) प्रकृतिके गुणोंका भोक्ता बन जाता
है । यह गुणोंका भोक्ता बनना, गुणोंका संग करना ही उसकी ऊँच-नीच योनियोंमें ले जानेका कारण
बनता है (१३ । १९-२१) । परंतु जो पुरुष अपनेको और गुणोंके सहित प्रकृतिको अलग ठीक तरहसे
जान लेता है अर्थात् प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध है ही नहीं‒इस वास्तविकताका अनुभव
कर लेता है, वह मुक्त हो जाता है (१३ । २३) । तात्पर्य है कि पुरुषका न तो
प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है और न प्रकृतिजन्य गुणोंके साथ ही सम्बन्ध है
।
गुण तो प्रकृतिजन्य हैं और पुरुष (स्वयं) गुणोंसे रहित हैं‒यह
बतानेके लिये भगवान्ने तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें पुरुषको ‘निर्गुण’ कहा है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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