Dec
24
।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
व्रत-पूर्णिमा

सच्चा गुरु कौन ?


(गत ब्लॉगसे आगेका)

मनुष्य किसीको गुरु बनाकर कहता है कि ‘मैं सगुरा हो गया हूँ अर्थात् मैंने गुरु धारण कर लिया, मैं निगुरा नहीं रहा’ और ऐसा मानकर वह सन्तोष कर लेता है तो उसकी उन्नतिमें बाधा लग जाती है । कारण कि वह और किसीको अपना गुरु मानेगा नहीं, दूसरोंका सत्संग करेगा नहीं, दूसरेका व्याख्यान सुनेगा नहीं तो उसके कल्याणमें बड़ी बाधा लग जायगी । वास्तवमें जो अपना कल्याण चाहते हैं, वे किसीको गुरु बनाकर किसी जगह अटकते नहीं, प्रत्युत अपने कल्याणके लिये जिज्ञासु बने ही रहते हैं । जबतक बोध न हो, तबतक वे कभी सन्तोष करते ही नहीं । इतना ही नहीं, बोध हो जानेपर भी वे सन्तोष करते नहीं, प्रत्युत सन्तोष हो जाता है । यह उनकी लाचारी है ।

          पुराने कर्मोंसे, प्रारब्धसे जो फल मिले, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आये, उसमें तो सन्तोष करना चाहिये, पर आगे नया उद्योग (पुरुषार्थ) करनेमें, परमात्माकी प्राप्ति करनेमें कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये । अतः जबतक बोध न हो जाय, तबतक सच्‍चे जिज्ञासुको कहीं भी अटकना नहीं चाहिये, रुकना नहीं चाहिये । यदि किसी महापुरुषके संगमें अथवा किसी सम्प्रदायमें रहनेसे बोध न हो तो उस संगको, सम्प्रदायको बदलनेमें कोई दोष नहीं है । सन्तोंने ऐसा किया है । यदि जिज्ञासा जोरदार हो और उस संगको अथवा सम्प्रदायको बदलना न चाहते हों तो भगवान्‌ जबर्दस्ती उसे बदल देते हैं । बदलनेपर सब ठीक हो जाता है ।

प्रश्न‒विद्यागुरु, दीक्षागुरु और सद्गुरुमें क्या अन्तर है ?

उत्तर‒जिससे शिक्षा लेते हैं, विद्या पढ़ते हैं, वह ‘विद्यागुरु’ है । जिससे यज्ञोपवीत धारण करते हैं, कण्ठी लेते हैं, दीक्षा लेते हैं, वह ‘दीक्षागुरु’ है । जिससे सत्य-तत्त्वका बोध (ज्ञान) होता है, वह ‘सद्गुरु’ है । सद्गुरु किसी भी वर्ण और आश्रमका हो सकता है । महाभारतमें कहा गया है‒

प्राप्य ज्ञानं ब्राह्मणात् क्षत्रियाद् वा
वैश्याच्छूद्रादपि नीचादभीभीक्ष्णम् ।
श्रद्धातव्यं   श्रद्दधानेन      नित्यं
न  श्रद्धिनं   जन्ममृत्यू   विशेताम् ॥
                                              (शान्ति ३१८ । ८८)

‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा नीच वर्णमें उत्पन्न हुए पुरुषसे भी यदि ज्ञान मिलता हो तो उसे प्राप्त करके श्रद्धालु मनुष्यको सदा उसपर श्रद्धा रखनी चाहिये । जिसके भीतर श्रद्धा है, उस मनुष्यमें जन्म-मृत्युका प्रवेश नहीं हो सकता ।’

प्रश्न‒गुरुकी पहचान क्या है ?

उत्तर‒गुरुकी पहचान शिष्य नहीं कर सकता । जो बड़ा होता है, वही छोटेकी पहचान कर सकता है । छोटा बड़ेकी पहचान क्या करे ! फिर भी जिसके संगसे अपनेमें दैवी-सम्पत्ति आये, आस्तिकभाव बढे, साधन बढे, अपने आचरण सुधरें, वह हमारे लिये गुरु है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे