Jan
28
।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
अलौकिक प्रेम



(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रह्लादजी, मीराबाई आदिके सामने कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आयीं, फिर भी वे दुःखी नहीं हुए । इसलिये परिस्थितिसे रहित होनेमें मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है, पर उसका भोग न करनेमें अर्थात् सुखी-दुःखी न होनेमें मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है । कारण कि परमात्माका अंश होनेसे उसमें निर्विकारता स्वत सिद्ध है[*] । अतः भागवतके उपर्युक्त श्लोकोंमें आये ‘धुताशुभाः’ पदका अर्थ पाप नष्ट होना और ‘क्षीणमङ्गलाः’ पदका अर्थ पुण्य नष्ट होना नहीं लिया जा सकता । तो फिर इन पदोंका क्या तात्पर्य है ? अब इसपर विचार किया जाता है ।
भगवान्‌के विरहसे गोपियोंको जो ताप (दुःख हुआ, वह दुःसह और तीव्र था‒‘दुःसहप्रेष्ठ विरहतीव्रताप ।’ यह ताप संसारके तापसे अत्यन्त विलक्षण है । सांसारिक तापमें तो दुःख-ही-दुःख होता है, पर विरहके तापमें आनन्द-ही-आनन्द होता है । जैसे मिर्ची खानेसे मुखमें जलन होती है, आँखोंमें पानी आता है, फिर भी मनुष्य उसको खाना छोड़ता नहीं; क्योंकि उसको मिर्ची खानेमें एक रस मिलता है । ऐसे ही प्रेमी भक्तको विरहके तीव्र तापमें उससे भी अत्यन्त विलक्षण एक रस मिलता है । इसीलिये चैतन्य महाप्रभु‒जैसे महापुरुषने भी विरहको ही सर्वश्रेष्ठ माना है । सांसारिक ताप तो पापोंके सम्बन्धसे होता है, पर विरहका ताप भगवतेमके सम्बन्धसे होता है । इसलिये विरहके तापमें भगवान्‌के साथ मानसिक सम्बन्ध रहनेसे आनन्दका अनुभव होता है‒‘ध्यानप्राप्ताच्यूताश्लेषनिर्वृत्या ।’ जैसे प्यास वास्तवमें जलसे अलग नहीं है, ऐसे ही विरह भी वास्तवमें मिलनसे अलग नहीं है । जलका सम्बन्ध रहनेसे ही प्यास लगती है । प्यासमें जलकी स्मृति रहती है । अतः  प्यास जलरूप ही हुई । इसी तरह विरह भी मिलनरूप ही है । विरह और मिलन‒दोनों एक ही प्रेमकी दो अवस्थाएँ हैं । संसारके सम्बन्धमें सुख भी दुःखरूप है और दुःख भी दुःखरूप है, पर भगवान्‌के सम्बन्धमें दुःख (विरह) भी सुखरूप है और सुख (मिलन) भी सुखरूप (आनन्दरूप) है । कारण कि सांसारिक सुख-दुःख (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तो गुणोंके संगसे होते हैं, पर भगवान्‌का विरह और मिलन गुणोंसे अतीत हैं । इसलिये भगवान्‌के सम्बन्धसे होनेवाला दुःख (विरह) सांसारिक सुखसे भी बहुत अधिक आनन्द देनेवाला होता है ! सांसारिक दुःखमें अभावरूप संसारका सम्बन्ध है, पर विरहके दुःखमें भावरूप भगवान्‌का सम्बन्ध है । सांसारिक दुःखमें कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और कर्ताकी स्वतन्त्र सत्ता रह जाती है; परन्तु विरहके दुःखमें कर्मोंका कारण (गुणोंका संग) ही नष्ट हो जाता है और कर्ताकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत केवल परमात्माकी सत्ता रहती है ।
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[*] ईस्वर अंस  जीव  अबिनासी ।
      चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
                     (मानस, उत्तर ११७ । १) 

      अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः    
      शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
                                                (गीता १३ । ३१)