Jan
28
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रह्लादजी, मीराबाई आदिके सामने कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आयीं,
फिर भी वे दुःखी नहीं हुए । इसलिये परिस्थितिसे रहित होनेमें मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है, पर
उसका भोग न करनेमें अर्थात् सुखी-दुःखी न होनेमें मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है । कारण कि परमात्माका अंश होनेसे उसमें निर्विकारता स्वत सिद्ध
है[*] । अतः भागवतके उपर्युक्त श्लोकोंमें आये ‘धुताशुभाः’ पदका अर्थ पाप नष्ट होना और ‘क्षीणमङ्गलाः’
पदका अर्थ पुण्य नष्ट होना नहीं लिया जा सकता । तो फिर इन पदोंका
क्या तात्पर्य है ? अब इसपर विचार किया जाता है ।
भगवान्के विरहसे गोपियोंको जो ताप (दुःख हुआ,
वह दुःसह और तीव्र था‒‘दुःसहप्रेष्ठ
विरहतीव्रताप ।’ यह ताप संसारके तापसे अत्यन्त विलक्षण है । सांसारिक तापमें तो दुःख-ही-दुःख होता है, पर
विरहके तापमें आनन्द-ही-आनन्द होता है । जैसे मिर्ची खानेसे मुखमें जलन होती है,
आँखोंमें पानी आता है,
फिर भी मनुष्य उसको खाना छोड़ता नहीं;
क्योंकि उसको मिर्ची खानेमें एक रस मिलता है । ऐसे ही प्रेमी
भक्तको विरहके तीव्र तापमें उससे भी अत्यन्त विलक्षण एक रस मिलता है । इसीलिये चैतन्य
महाप्रभु‒जैसे महापुरुषने भी विरहको ही सर्वश्रेष्ठ माना है । सांसारिक ताप तो पापोंके सम्बन्धसे होता है, पर
विरहका ताप भगवतेमके सम्बन्धसे होता है । इसलिये विरहके तापमें भगवान्के साथ मानसिक सम्बन्ध रहनेसे आनन्दका अनुभव होता
है‒‘ध्यानप्राप्ताच्यूताश्लेषनिर्वृत्या ।’
जैसे प्यास वास्तवमें जलसे अलग नहीं है,
ऐसे ही विरह भी वास्तवमें मिलनसे अलग नहीं है । जलका सम्बन्ध
रहनेसे ही प्यास लगती है । प्यासमें जलकी स्मृति रहती है । अतः प्यास जलरूप ही हुई । इसी तरह विरह भी मिलनरूप ही
है । विरह और मिलन‒दोनों एक ही प्रेमकी दो अवस्थाएँ हैं ।
संसारके सम्बन्धमें सुख भी दुःखरूप है और दुःख भी दुःखरूप है,
पर भगवान्के सम्बन्धमें दुःख (विरह) भी सुखरूप है और सुख (मिलन)
भी सुखरूप (आनन्दरूप) है । कारण कि सांसारिक सुख-दुःख (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तो गुणोंके
संगसे होते हैं, पर भगवान्का विरह और मिलन गुणोंसे अतीत हैं । इसलिये भगवान्के
सम्बन्धसे होनेवाला दुःख (विरह) सांसारिक सुखसे भी बहुत अधिक आनन्द देनेवाला होता है
! सांसारिक दुःखमें अभावरूप संसारका सम्बन्ध है,
पर विरहके दुःखमें भावरूप भगवान्का सम्बन्ध है । सांसारिक दुःखमें
कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और कर्ताकी स्वतन्त्र सत्ता रह जाती है;
परन्तु विरहके दुःखमें कर्मोंका कारण (गुणोंका संग) ही नष्ट
हो जाता है और कर्ताकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती,
प्रत्युत केवल परमात्माकी सत्ता रहती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस,
उत्तर॰ ११७ । १)
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय
न करोति न लिप्यते ॥
(गीता
१३ । ३१)
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