।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, रविवार
कामना और आवश्यकता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

भोग और संग्रहका, शरीरका त्याग तो अपने-आप हो रहा है । जैसे बालकपना चला गया, ऐसे ही जवानी भी चली जायगी, वृद्धावस्था भी चली जायगी, व्यक्ति भी चले जायँगे, पदार्थ भी चले जायेंगे । केवल उनकी इच्छाका त्याग करना है, उनको अस्वीकार करना है । परन्तु परमात्मा निरन्तर हमारे साथ रहते हैं । वे हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर नहीं हैं । परमात्माको मानें तो भी वे हैं, न मानें तो भी वे हैं, स्वीकार करें तो भी वे हैं, अस्वीकार करें तो भी वे हैं । परन्तु संसार हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर करता है । संसारको स्वीकार करें तो वह है, अस्वीकार करें तो वह नहीं है । अगर संसार मनुष्यकी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर नहीं होता तो फिर कोई भी मनुष्य संसारसे असंग नहीं हो सकता, साधु नहीं बन सकता । संसार निरन्तर अलग हो रहा है और परमात्मा कभी अलग नहीं होते । केवल संसारकी इच्छाका त्याग करना है और परमात्माकी आवश्यकताका अनुभव करना है । फिर संसारका त्याग और परमात्माकी प्राप्ति स्वतः-सिद्ध है ।

किसीकी भी ताकत नहीं है कि वह शरीर-संसारको अपने साथ रख सके अथवा खुद उनके साथ रह सके । न हम उनके साथ रह सकते हैं, न वे हमारे साथ रह सकते हैं क्योंकि वे हमारे नहीं हैं । संसारका कोई भी सुख सदा नहीं रहता; क्योंकि वह सुख हमारा नहीं है । उसकी इच्छाका त्याग करना ही पड़ेगा । संसारको सत्ता भी हमने ही दी है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । वास्तवमें संसारकी सत्ता है नहीं‒नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । संसार एक क्षण भी टिकता नहीं है । हमें वहम होता है कि हम जी रहे हैं, पर वास्तवमें हम मर रहे हैं । मान लें, हमारी कुल आयु अस्सी वर्षकी है और उसमेंसे बीस वर्ष बीत गये तो अब हमारी आयु अस्सी वर्षकी नहीं रही, प्रत्युत साठ वर्षकी रह गयी । हम सोचते हैं कि हम इतने वर्ष बड़े हो गये हैं पर वास्तवमें छोटे हो गये हैं । जितनी उम्र बीत रही है, उतनी ही मौत नजदीक आ रही है । जितने वर्ष बीत गये, उतने तो हम मर ही गये । अतः जो निरन्तर छूट रहा है, उसको ही छोड़ना है और जो निरन्तर विद्यमान है, उसको ही प्राप्त करना है ।

हमने जिद कर ली है कि हम संसारको पकड़ेंगे, छोड़ेंगे नहीं तो भगवान्‌ने भी जिद कर ली है कि मैं छुड़ा दूँगा, रहने दूँगा नहीं । हम बालकपना पकड़ते हैं तो भगवान् उसको नहीं रहने देते, हम जवानी पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम वृद्धावस्था पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम धनवत्ता पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम नीरोगता पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे