।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
साधकोंके प्रति-१४
 
 
 
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)

एक सन्तने कहा था‒यह हमारे काममें ली हुई, अनुभव की हुई बात है कि मनसे पूछे‒तेरेको क्या चाहिये ? मनसे उत्तर दे‒कुछ नहीं । बोल, क्या चाहिये ? कुछ नहीं‒ऐसे बार-बार मनसे कहो तो चाहना मिट जायगी । हमें कुछ चाहिये ही नहीं; क्योंकि सबके अन्न-जलकी व्यवस्था अपने-आप होती है । हम जी रहे है तो जीनेकी सामग्री अपने-आप आयेगी । फिर चाहना क्यों करें ? सुख मिले और दुःख न मिले‒ऐसा सब चाहते है पर आजतक एक भी प्राणी ऐसा नहीं हुआ, जिसको दुःख न मिला हो और सुख-ही-सुख मिला हो । इसलिये प्रभुकी मरजीमें अपनी मरजी मिला दें । प्रभु जो कर रहे है, उसमें हमारा हित भरा है । ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये‒यही बन्धन है । यह न रहे तो फिर प्रभुका भजन ही होगा ।

प्रभुकी मरजीमें अपनी मरजी मिला देना, अपनी कोई अलग चाह न रखना ही पूजा है । अगर अपने मनमें यह हो और यह न हो‒ऐसा रहेगा तो पूजामें बाधा होगी । एक सन्त मिले थे । उन्होंने कहा कि हमारी तो सदा मनचाही होती है। दुनियामें ऐसा कोई नहीं है, जिसकी सदा मनचाही होती हो । उनसे पूछा कि महाराज ! आपकी सदा मनचाही कैसे होती है ?’ वे बोले कि हम अपनी कोई चाहना रखते ही नहीं, हमने अपनी चाहना भगवान्‌की चाहनामें मिला दी है । अब वे जो कुछ करें, उसमें हमारी भी यही चाहना है अर्थात् ऐसा हो गया तो हम भी ऐसा ही चाहते हैं; अतः जो होता है, वह हमारी चाहनाके अनुसार ही होता है ।’

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई ।
करै अन्यथा  अस नहि कोई ॥
                                                              (मानस १ । १२८)

इसलिये साधक अपनी कोई चाहना न रखे ।

ऊधौ मन माने की बात ।
दाख छोहारा छाड़ि अमृतफल, विषकीरा विष खात ॥
जो चकोर को दै कपूर कोउ, तजि अंगार अघात ।
मधुप करत घर कोरे काठ में बँधत कमल के पात ॥
ज्यों पतंग हित जान आपनो दीपक सों लपटात ।
सूरदास जाको मन जासों, ताको सोइ सुहात ॥
कहा कहौं छबि आजुकी भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक तब नवै धनुष-बान लेउ हाथ ॥
मुरली मुकुट दुरायकै नाथ भये रघुनाथ ।
लखि अनन्यता भक्तिकी जन को कियो सनाथ ॥

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

 ‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे