।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
देनेके भावसे-कल्याण


(गत ब्लॉगसे आगेका)

सेवक, सेवा और सेव्य‒ये तीन होते हैं । सेवा करते-करते जब सेवकपनेका अभिमान मिट जाता है, तब सेवक सेवा होकर सेव्यमें लीन हो जाता है । अभिमान मिटनेपर केवल सेवा-ही-सेवा रह जाती है । जैसे, गोस्वामीजी महाराजने रामायणकी रचना की तो अब रामायणके द्वारा समाजकी कितनी सेवा हो रही है ! तात्पर्य है कि गोस्वामीजी महाराज ही सेवारूपसे हमारे सामने आये हैं । रामायण गोस्वामीजी महाराजका ही रूप है और रामायणरूपसे सबकी सेवा कर रहे हैं । उनकी सेव्य (परमात्मा) से अलग स्वतन्त्र स्थिति नहीं रही ।

ज्ञानमार्गमें जब जिज्ञासुपनेका अभिमान मिट जाता है, तब केवल जिज्ञासा रहकर तत्वज्ञान हो जाता है । जबतक ‘मै जिज्ञासु हूँ’ ऐसे जिज्ञासु रहता है, तबतक तत्त्वज्ञान नहीं होता । जिज्ञासुपना मिटते ही तत्काल तत्वज्ञान हो जाता है । इसमें किसी गुरुकी जरूरत नहीं है । कारण कि वास्तवमें तत्त्वज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत वह पहलेसे ही है । उत्पन्न होनेवाली चीज मिटनेवाली होती है । जो पैदा होता है, उसका नाश अवश्यम्भावी है । ज्ञान नित्य है । यह उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तु नहीं है । अज्ञानके मिटनेको ही ज्ञानका होना कह देते हैं । जैसे सूर्य उदय होता है, पैदा नहीं होता, ऐसे ही ज्ञान उदय (प्रकट) होता है । ज्ञानस्वरूप परमात्मा सबके हृदयमें विराजमान हैं‒

ज्योतिषामपि तज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
                                    (गीता १३ । १७)

‘वह परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियोंका भी ज्योति और अज्ञानसे अत्यन्त परे कहा गया है । वह ज्ञानस्वरूप, जाननेयोग्य, ज्ञान  (साधनसमुदाय) से प्राप्त करनेयोग्य और सबके हृदयमें विराजमान है ।’

केवल हमारे अज्ञानके कारण वे प्रकट नहीं हो रहे हैं‒

अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी ।
सकल  जीव  जग  दीन  दुखारी ॥
                                    (मानस, बाल २३ । ४) ।

अज्ञान मिटते ही तत्वज्ञान ज्यों-का-त्यों है ।

गृहस्थमें रहते हुए अपने कर्मोंके द्वारा भगवान्‌का पूजन बहुत सुगमतासे किया जा सकता है । एकान्तमें रहकर साधन करनेकी अपेक्षा समुदायमें रहकर साधन करना श्रेष्ठ है । समुदायमें रहकर साधन करनेवाला एकान्तमें भी साधन कर सकता है, पर एकान्तमें साधन करनेवाला समुदायमें रहकर साधन नहीं कर सकता‒यह उसमें एक कमजोरी रहती है । गृहस्थ छोड़कर साधु बननेवाला कायर होता है । कायर भागता है, शूरवीर नहीं भागता । शूरवीरका साधन तेज होता है । इसलिये गृहस्थमें बड़े अच्छे सन्त हुए हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे