।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७३, सोमवार

योग
(कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग)


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌की अपरा प्रकृति होनेसे संसार भगवान्‌का है । अतः जैसे कोई हमारे प्यारे सम्बन्धीकी सेवा करे तो वह हमें प्यारा लगता है, ऐसे ही हम निःस्वार्थभावसे संसारकी सेवा करेंगे तो हम भगवान्‌को प्यारे लगेंगे और हम भगवान्‌को अपना मान लेंगे तो भगवान् हमें प्यारे लगेंगे । जब हम भगवान्‌को और भगवान् हमारेको प्यारे लगेंगे, तब हमारी भगवान्‌से आत्मीयता हो जायगी[*] और हमारा मानव-जन्म पूर्णतः सार्थक हो जायगा ।

हम संसारकी सेवा करेंगे तो संसार भी राजी हो जायगा और उसके मालिक भगवान् भी राजी हो जायँगे । हम भगवान्‌को अपना मानेंगे तो इससे भी भगवान् राजी हो जायँगे । इस प्रकार भगवान् दुगुने राजी हो जायँगे और हमें भी दुगुना लाभ हो जायगा‒संसारसे मुक्ति भी मिल जायगी और भगवान्‌में भक्ति (प्रियता) भी मिल जायगी । संसारकी चीज संसारको दे दी और भगवान्‌की चीज भगवान्‌को दे दी तो हमारे घरका क्या खर्च हुआ ? अपना कुछ भी खर्च नहीं होगा और मुफ्तमें मुक्ति और भक्ति प्राप्त हो जायगी । संसार अपना स्वार्थ चाहता है, उसका स्वार्थ सिद्ध हो जायगा । भगवान् प्रेम चाहते हैं, उनमें प्रेम हो जायगा । हम अपना कल्याण चाहते हैं, हमारा कल्याण हो जायगा ।

कर्मयोग तथा ज्ञानयोगके साधनमें ‘निषेध’ मुख्य है और भक्तियोगके साधनमें ‘विधि’ मुख्य है । कारण कि हमें संसारके सम्बन्धका त्याग करना है, जो भूलसे माना हुआ है और भगवान्‌से सम्बन्ध जोड़ना है, जिसको हम भूल गये हैं । कर्मयोगमें सेवाके द्वारा संसारका निषेध होता है और ज्ञानयोगमें विवेक-विचारके द्वारा संसारका निषेध होता है । निषेध होनेपर स्वरूपमें स्थिति स्वतः होती है और विधि होनेपर संसारका त्याग स्वतः होता है । त्याग करनेकी अपेक्षा स्वतः होनेवाला त्याग श्रेष्ठ होता है । कारण कि त्याग करनेपर त्यागीकी और त्याज्य वस्तुकी सत्ता रहती है, पर स्वतः त्याग होनेपर त्यागीकी और त्याज्य वस्तुकी सत्ता सर्वथा नहीं रहती अर्थात् अहम्‌का सर्वथा नाश हो जाता है ।

यह सिद्धान्त है कि कर्तव्यमात्र समझकर (अपनी कामना-ममता न रखकर) जो कर्म किया जाता है, उस कर्मसे लिप्तता नहीं होती, प्रत्युत उससे सम्बन्ध-विच्छेद होता है । इसलिये भगवान्‌ने गीतामें कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करनेको ‘त्याग’ नामसे कहा है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे


[*] प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः
                                        (गीता ७ । १७) ।
  ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्
                   (गीता ७ । १८) ।