Apr
27
(गत ब्लॉगसे आगेका)
भक्त जब एकान्तमें बैठता है,
तब उसकी दृष्टिमें एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं होता । अतः वह
भगवत्प्रेमकी मादकतामें डूबा रहता है । परन्तु जब वह व्यवहार करता है,
तब भगवान् संसाररूपसे सेव्य बनकर उसके सामने आते हैं । अतः व्यवहारमें
भक्त अपनी प्रत्येक क्रियासे भगवान्का पूजन करता है‒‘स्वकर्मणा
तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः’ (गीता
१८ । ४६) । पहले पूजक मुख्य होता है, फिर
वह पूजा होकर पूज्यमें लीन हो जाता है ।
परमात्मा सगुण हैं कि निर्गुण हैं,
साकार हैं कि निराकार हैं,
दयालु हैं कि न्यायकारी अथवा उदासीन हैं,
द्विभुज हैं कि चतुर्भुज हैं आदि विचार करना भक्तका काम नहीं
है । ऐसा विचार उसी वस्तुके विषयमें किया जाता है,
जिसका त्याग अथवा ग्रहण करनेकी आवश्यकता हो;
क्योंकि ‘संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने’ (मानस, बाल॰ ६ । १) । जैसे हम कोई वस्तु खरीदने जाते हैं तो परीक्षा करते हैं कि वस्तु कैसी है,
मेरे लिये कौन-सी वस्तु उपयोगी है,
आदि । परन्तु परमात्माका त्याग कोई कर सकता ही नहीं । जीवमात्र
परमात्माका सनातन अंश है । अंश अंशीका त्याग कैसे कर सकता है ?
इतना ही नहीं, सर्वसमर्थ परमात्मा भी अगर चाहें तो जीवका त्याग करनेमें असमर्थ
हैं । अतः जिस परमात्माका त्याग कर सकते ही नहीं, उसके
लिये यह विचार करना अथवा परीक्षा करना निरर्थक है कि वे कैसे हैं । वे तो वास्तवमें
सदासे ही अपने हैं । केवल अपनी भूल मिटाकर उनको स्वीकारमात्र करना है । जैसे विवाह होनेपर पतिव्रताकी दृष्टिमें पति कैसा ही हो,
वह हमारा है, ऐसे ही परमात्मा कैसे ही हों,
वे हमारे हैं[*]‒
असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा गुणैर्विहीनो गुणिना वरो
वा ।
द्वेषी मयि स्यात्करुणाम्बुधिर्वा श्यामः स एवाद्य
गतिर्ममायम् ॥
‘मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण कुरूप हों या सुन्दर-शिरोमणि
हों, गुणहीन हों या गुणियोंमें श्रेष्ठ हों, मेरे प्रति द्वेष रखते हों या करुणासिन्धु-रूपसे कृपा करते हों, वे चाहे जैसे हों, मेरी तो वे ही एकमात्र गति हैं ।’
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्मर्महतं करोतु वा ।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ॥
(शिक्षाष्टक ८)
‘वे चाहे मुझे हृदयसे लगा लें या चरणोंमें लिपटे
हुए मुझे पैरोंतले रौंद डालें अथवा दर्शन न देकर मर्माहत ही करें । वे परम स्वतन्त्र
श्रीकृष्ण जैसा चाहें, वैसा करें, मेरे तो वे ही प्राणनाथ हैं, दूसरा कोई नहीं ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
[*] पति तो परतः है, पर भगवान् स्वतः हैं । भगवान् स्वतः सबके परमपति हैं‒‘पति पतीनां परमम्’ (श्वेताश्वतर॰ ६ । ७) ।
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