।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७३, बुधवार
योग
(कर्मयोग-ज्ञानयोग-भक्तियोग)


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भक्त जब एकान्तमें बैठता है, तब उसकी दृष्टिमें एक भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं होता । अतः वह भगवत्प्रेमकी मादकतामें डूबा रहता है । परन्तु जब वह व्यवहार करता है, तब भगवान् संसाररूपसे सेव्य बनकर उसके सामने आते हैं । अतः व्यवहारमें भक्त अपनी प्रत्येक क्रियासे भगवान्‌का पूजन करता है‒‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः’ (गीता १८ । ४६)पहले पूजक मुख्य होता है, फिर वह पूजा होकर पूज्यमें लीन हो जाता है ।

परमात्मा सगुण हैं कि निर्गुण हैं, साकार हैं कि निराकार हैं, दयालु हैं कि न्यायकारी अथवा उदासीन हैं, द्विभुज हैं कि चतुर्भुज हैं आदि विचार करना भक्तका काम नहीं है । ऐसा विचार उसी वस्तुके विषयमें किया जाता है, जिसका त्याग अथवा ग्रहण करनेकी आवश्यकता हो; क्योंकि ‘संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने’ (मानस, बाल ६ । १) । जैसे हम कोई वस्तु खरीदने जाते हैं तो परीक्षा करते हैं कि वस्तु कैसी है, मेरे लिये कौन-सी वस्तु उपयोगी है, आदि । परन्तु परमात्माका त्याग कोई कर सकता ही नहीं । जीवमात्र परमात्माका सनातन अंश है । अंश अंशीका त्याग कैसे कर सकता है ? इतना ही नहीं, सर्वसमर्थ परमात्मा भी अगर चाहें तो जीवका त्याग करनेमें असमर्थ हैं । अतः जिस परमात्माका त्याग कर सकते ही नहीं, उसके लिये यह विचार करना अथवा परीक्षा करना निरर्थक है कि वे कैसे हैं । वे तो वास्तवमें सदासे ही अपने हैं । केवल अपनी भूल मिटाकर उनको स्वीकारमात्र करना है । जैसे विवाह होनेपर पतिव्रताकी दृष्टिमें पति कैसा ही हो, वह हमारा है, ऐसे ही परमात्मा कैसे ही हों, वे हमारे हैं[*]

असुन्दरः   सुन्दरशेखरो वा     गुणैर्विहीनो    गुणिना   वरो वा ।
द्वेषी मयि स्यात्‌करुणाम्बुधिर्वा श्यामः स एवाद्य गतिर्ममायम् ॥

‘मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण कुरूप हों या सुन्दर-शिरोमणि हों, गुणहीन हों या गुणियोंमें श्रेष्ठ हों, मेरे प्रति द्वेष रखते हों या करुणासिन्धु-रूपसे कृपा करते हों, वे चाहे जैसे हों, मेरी तो वे ही एकमात्र गति हैं ।’

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु      मामदर्शनान्मर्महतं करोतु वा ।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ॥
                                                                                         (शिक्षाष्टक ८)

‘वे चाहे मुझे हृदयसे लगा लें या चरणोंमें लिपटे हुए मुझे पैरोंतले रौंद डालें अथवा दर्शन न देकर मर्माहत ही करें । वे परम स्वतन्त्र श्रीकृष्ण जैसा चाहें, वैसा करें, मेरे तो वे ही प्राणनाथ हैं, दूसरा कोई नहीं ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे


[*] पति तो परतः है, पर भगवान् स्वतः हैं । भगवान् स्वतः सबके परमपति हैं‒‘पति पतीनां परमम्’ (श्वेताश्वतर ६ । ७)