।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
चैत्र नवरात्रारम्भ, ‘सौम्य’ संवत्सर
बेईमानीका त्याग


(गत ब्लॉगसे आगेका)

जो लूटना चाहते हैं, लेना चाहते हैं, ऐसी बहन-बेटी भी होगी तो उसको भी देना नहीं चाहेंगे । जबकि कन्याको देना चाहिये । बहनको देना चाहिये पर जो बहन-बेटी खाऊँ-खाऊँ करने लग जाती है तो उसको देना नहीं चाहते और जो कहे कि ‘नहीं भैया ! मेरे बहुत है, जरूरत नहीं है’ तो उसको और देनेकी मनमें आवेगी कि ‘नहीं बहन ! और ले जा इतना ।’ आप देकर प्रसन्न होंगे और बहन भी प्रसन्न होगी तथा दूसरे लोग भी देखकर प्रसन्न होंगे । ‘नहीं भैया ! हमारे बहुत है ।’ यह सच्ची बात है । आपके देनेसे ही उसका गृहस्थ थोड़े ही चलेगा । चलेगा तो उसके घरसे ही तो यहाँ क्यों नियत बिगाड़ो ? ‘इनका ले लें इतना और ले लें’ऐसा करके केवल अपनी नियत बिगाड़ना है और मिलेगा कुछ नहीं ।

बहुत वर्षों पहले एक बात मेरे मनमें आयी थी कि ये बणिया लोग कमाते हैं तो खाते हैं साधुओंको और ब्राह्मणोंको भी देते हैं और जहाँतक बने, ये लोग पुण्यका नहीं लेते । दान-पुण्यमें खर्च करते हैं पर ब्राह्मण कमानेमें व्यापार करते हैं, नौकरी करते हैं और मुफ्तमें दान-पुण्य भी लेते है, फिर भी ब्राह्मण इतने धनवान् नहीं होते हैं । तो क्या कारण है ? कमानेमें आपसे कम काम नहीं करते, तो फिर धनी ज्यादा होना चाहिये न ? धन ज्यादा होना चाहिये कि नहीं, बताओ ? पर उनके पास बहुत अधिक धन है क्या ? जितना मिलना है, उतना ही मिलेगा भाई । तो क्यों नियत बिगाड़ो ? ‘इससे भी ले लूँ उससे भी ले लूँ’ यह दरिद्रता आपके साथ चलेगी और कुछ नहीं चलेगा । मेरेको नहीं लेना है तो भी आनेवाली चीज आवेगी ही । सच्ची बात है । नियतको शुद्ध करना अपने हाथकी बात है । परायी चीजको लेना हाथकी बात नहीं है । हमें सेवा करना है, ऐसे नियत शुद्ध बना लो तो बेड़ा पार है ।

मेरेको तो ऐसी बात मालूम होती है कि मुक्तिके समान सरल चीज कोई है ही नहीं । केवल बेईमानी छोड़नी है । बेईमानी भी छोड़ोगे नहीं तो क्या साधन करोगे ? एक जाटकी बात सुनी कि रेणके पास बाहर गाँवमें रहनेवाला एक जाट था । वह रेण गाँवमें आता और दुकानपर कहता कि सेठ ! अमुक-अमुक चीज इतनी-इतनी दे दो, ये रुपये लो । वह सेठ वापस जितने पैसे लौटाता है लेकर चल देता । न भाव पूछता, न तौल पूछता, न मोल करता । किसीने उसको कहा‒‘ऐसे कैसे करते हो ।’ तो उसने कहा‒‘जो मेरी चीज होगी तो उसे सेठ ले सकेगा नहीं और वह अपनी देगा नहीं ।’ अब एक जाट आदमीकी ऐसी बात है ! बीती हुई बात है । आप यह कर सकोगे नहीं और मैं ऐसा करनेका कहता भी नहीं; क्योंकि एकदम ऐसा कर सकोगे नहीं । और कहीं ठगी हो जायगी तो चित्तमें खन-खनाहट होगी, इस वास्ते ऐसा नहीं करना है । भार उतना ही उठाओ, जितना उठा सको पर नीयत पूरी बना लो । चोर चोरी करने जाता है, वह भी अपनी चीज ही ले जाता है, आपकी नहीं ले जा सकता, ताकत नहीं है उसमें ले जानेकी ! ऐसे उदाहरण आजकलके जमानेमें बीते हैं ।

नीयत मत बिगाड़ो बाबा ! निर्वाह होनेवाला तो होगा ही, नीयत बिगाड़नेपर दुःख पाना ही पड़ेगा । लाखों रुपये रहनेपर भी रोटी नहीं खा सकोगे और जिनके पास कौड़ी नहीं है, ऐसे सन्तोंकी एक साखीमें आता है‒

धान नहीं   धीणों  नहीं   नहीं रुपैयो रोक ।
जीमण बैठा रामदास आन मिले सब थोक ॥

सच्ची है कि झूठी ! धान आपका, धीणा (गाय- भैंस) आपके, रुपये आपके और भोजन हम करते हैं । जो आना है वह आ जायगा । जो नहीं आना है तो साधु होनेमात्रसे माल मिले, यह बात नहीं है । अपनी है, वह अपनेको मिलेगी । ‘यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्’ जो हमारी है, वह औरोंकी हो नहीं सकती । आप हम जन्मे तो माँके दूध पैदा हो गया तो क्या अब हमारे लिये अन्न पैदा नहीं होगा ? प्रबन्ध करनेवाला वही है, इस वास्ते न्याययुक्त काम करो, परिश्रम करो, उद्योग करो, यह अपना काम है । चिन्ता मत करो । उत्साहपूर्वक, तत्परतासे मशीनकी तरह काम करो ।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
                                      (गीता ३ । ११)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे