(गत ब्लॉगसे आगेका)
अर्जुन चिन्ता करता है कि ये सब मर
जायँगे, तो कुलमें पाप फैल जायगा । पाप फैलनेसे वर्णसंकर पैदा
हो जायँगे, फिर पितरोंको पिण्ड नहीं मिलेगा । इनको
मारनेसे बड़ा भारी पाप हो जायगा । भगवान् कहते हैं कि अरे, पहले ही हल्ला क्यों करता है ? अभी हुआ कुछ नहीं, चिन्ता ऐसे ही करता है ! जो हो गया, उसकी चिन्ता करता है अथवा जो नहीं हुआ, उसकी चिन्ता करता है, तो मुफ्तमें उड़ता हुआ तीर अपनेपर लेता
है ! जो अभी है ही नहीं, उसकी आफत पहले ही मुफ्तमें खड़ी कर दी
। तो खटपट आये तो उसमें फँस गये और चली जाय तो उसमें फँसे रहे । खटपट तो मिट जाती है, रहती नहीं, पर उसे पकड़-पकड़कर रोते हैं । उसे क्यों पकड़ो ? वह चली गयी तो मौज करो, आनन्द करो कि अब तो मिट गयी ।
खटपटमें शक्ति नहीं है रहनेकी
। किसीका
जवान ब्याहा हुआ बेटा मर जाय, तो मोह-आसक्तिके कारण हृदयमें एक चोट
लगती है । परन्तु वह मरता है, तब जैसी चोट लगती है, वैसी चोट दूसरे-तीसरे दिन नहीं रहती । पर रो-रोकर, याद कर-करके उसे रखते हैं । याद करते हैं फिर रोते हैं; इस तरह उसको पालते हैं । फिर भी वह हृदयकी चोट एक दिन
मर ही जाती है । चिन्ता-शोक मर ही जाते हैं । आप उन्हें रख सकते ही नहीं । है किसीमें
ताकत कि उन्हें रख ले ? कुछ वर्षोंके बाद तो चिन्ता-शोक बिलकुल
मर जाते है । आपने तो रखनेकी खूब चेष्टा की, खूब रोये, खूब दूसरोंको सुनाया कि यों था, ऐसा था, वह चला गयी । इतना शोकको पाला, फिर भी वह मर ही जाता है । मेहनत करनेपर भी नहीं रहता । इसलिये उसकी उपेक्षा कर दो । मर गया तो खत्म हो गया काम
। अब क्या चिन्ता करें और क्या रोवें ? तो उसी समय शान्ति हो जाय । पर उसे पालेंगे, तो भी वह तो रहेगा नहीं । मेरी बात झूठी हो तो बोलो । तो जो मिटनेवाली थी, मिट गयी । बस खत्म हुआ काम । मिटनेवालेके साथ मिलो मत । कितनी सीधी बात है । मेरी धारणामें आप जितने
बैठे हो, इसमें कोई निर्बल नहीं है, जो कि इस बातको न मान सके । आप अपनेको निर्बल मान लो, तो मैं क्या करूँ ? इतना तो आप जानते हो कि मैं धोखा नहीं देता, आपके साथ विश्वासघात नहीं करता । तो मेरी बातपर अविश्वास क्यों करो ? कोई धोखा
होता हो तो बता दो कि तुम्हारी बात माननेसे यह धोखा होता है । कोई हानि हो तो बता दो
। पर माननेसे लाभ होता है, इसे आप भी मानते हो और मैं भी मानता
हूँ ।
या तो स्वयं इसे समझनेके
लिये विचार कर लो अथवा दूसरेकी बात मान लो‒इनमेंसे एक कर लो । बुद्धिकी तीक्ष्णताकी जरूरत नहीं है
। तीक्ष्णता सहायता कर सकती है, पर बुद्धिकी शुद्धि (एक निश्चय) जितनी
सहायता करती है, उतनी तीक्ष्णता नहीं करती । बुद्धिमें
जड़ता हो या विक्षेप हो, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । पर इस विषयको
मैं समझूं इसी तरफ लक्ष्य हो ।
वास्तवमें खटपट अपनेमें
है ही नहीं‒यही सार बात है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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