(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒सगुण
तो गुणोंमें है । त्रिगुणातीत केवल निर्गुण-निराकार है ?
स्वामीजी‒ऐसा नहीं है ।
श्रीमद्भागवतमें सगुणको भी ‘निर्गुण’ कहा गया है (११ । २५ । २५,
२७) । सगुण उसे नहीं कहते,
जिसमें सत्व-रज-तम गुण हैं,
प्रत्युत उसे कहते हैं,
जिसमें ऐश्वर्य, माधुर्य,
सौन्दर्य, औदार्य आदि दिव्य गुण हैं । गुणोंके अनुसार क्रिया
होती है, पर भगवान् गुणोंसे निर्लिप्त रहते हैं । इसलिये गीतामें गुणातीत
महापुरुषके लिये भी यही बात कही है‒
प्रकाशं च प्रवृत्तिं
च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति
॥
‘हे पाण्डव ! प्रकाश और प्रवृत्ति तथा मोह‒ये
सभी अच्छी तरहसे प्रवृत्त हो जायँ तो भी गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता और ये
सभी निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता ।’
सगुणमें अपरा नहीं है; किन्तु क्रिया अपराकी होती है ।
प्रश्न‒सगुण-साकार
और सगुण-निराकार मायासे पार जानेमें ही सहायक हैं ?
स्वामीजी‒ठीक है,
पर हम सगुण-साकार, सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकार‒तीनोंमें भेद नहीं मानते ।
एक ही तत्त्व इन तीन रूपोंमें है ।
प्रश्न‒शाण्डिल्यका
भक्तिसूत्र वेदोंसे विशेष है या विरुद्ध ?
स्वामीजी‒भक्तिसूत्र
वेदोंसे विरुद्ध नहीं है,
प्रत्युत वेदोंसे विशषता प्रकट करनेवाला है ।
प्रश्न‒लोकसंग्रह
करें कि नहीं ?
स्वामीजी‒यदि आपको ज्यादा
लोग जानते हैं, श्रेष्ठ मानत हैं तो लोकसंग्रह आपके लिये आवश्यक हो जाता है‒‘लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि’ (गीता
३ । २०) । हाँ, यदि ज्यादा
लोग आपको न जानते हों तो अवधूत होकर रह सकतें हैं ।
वास्तवमें बोधवान्के लिये कोई विधि है ही नहीं । विधि साधकोंके
लिये है । कई महात्मा लोगोंमें प्रसिद्ध होनपर भी अवधूत होकर रहत हैं तो यह स्वभाव-भेदसे
है ।
प्रश्न‒क्या ‘वासुदेव’ निर्गुण
ब्रह्म है ?
स्वामीजी‒‘वासुदेव’
का अर्थ है‒वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण,
जो सगुण-साकार हैं और जो गीतामें कहते है‒‘मया ततमिदं सर्वम्’ (९ ।
४) आदि ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे
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