।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७३, सोमवार
स्वाभाविकता क्या है ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

आप अपनेको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र समझते हैं । यह तो शरीर-धारण करनेके बाद आप समझते हैं, इस शरीरमें नहीं आये तो क्या पहले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र थे आप ? बिलकुल नहीं थे । ये जो अपनेको वर्ण और आश्रमका मानना है, यह अस्वाभाविक है । स्वाभाविक नहीं है । बनावटी है, कृत्रिम है और इनकी क्या इज्जत है । जन्म हो गया तो हम ब्राह्मण हो गये साहब, हम क्षत्रिय हो गये, हम वैश्य हो गये, शूद्र हो गये । क्या हो गये ? आपने एक चोला पहन लिया । माँ-बापसे एक शरीर मिल गया । शरीर तो माँ-बापसे ही मिला हुआ है । आपका नहीं है फिर आप ब्राह्मण कैसे हुए ?

एक जरा कड़ी बात है, आपने पेशाबका इतना आदर कर दिया, पेशाबको इतना महत्त्व दे दिया । थोड़ा विचार करो आप ! अन्तमें यह है तो रज-वीर्य ही । यह अस्वाभाविकमें स्वाभाविक भाव है कि हम तो ब्राह्मण है । अरे भाई ! कबसे हो तुम ब्राह्मण ? हम तो बड़े है, छोटे हैं, हम तो मेहतर हैं । अरे, तुम मेहतर कबसे हो गये ! न कोई छोटा है, न बड़ा है, हम स्वाभाविक ही परमात्माके अंश है और शरीर स्वाभाविक ही संसारका अंश है ।

अब इसमें दुरुपयोग करेंगे । अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकता कैसे लायेंगे ? कि सबके साथ खाओ-पीओ । अरे, इस प्रकार तो धर्म-भ्रष्ट होनेसे बुद्धि और भ्रष्ट हो जायगी ! स्वाभाविकतासे बहुत दूर चले जाओगे; परन्तु इसीको आज उन्नति मानते है । सबके साथ खाना-पीना कर लो, सबके साथ ब्याह कर लो; क्योंकि फर्क है ही नहीं । अब फर्क कैसे नहीं है ? पेशाबमें तो फर्क है ही । अलग-अलग पेशाब है । रोगीका अलग होता है, नीरोगका अलग होता है । ऐसे अलग-अलग होता है । उसे अलग-अलग मानना ही पड़ेगा । और अगर मिला दो तो सब रोगी बनेंगे कि सब नीरोग बन जायेंगे ? शुद्ध और अशुद्धको मिलानेसे अशुद्ध शुद्ध बनेगा कि शुद्ध अशुद्ध बनेगा ? आप थोड़ा विचार करो । अपवित्र और पवित्र दोनों चीजोंको मिलाया जाय तो पवित्र अपवित्र हो जायगा कि अपवित्र पवित्र हो जायगा । अब उलटा चलेंगे, क्योंकि कलियुग आ गया, इस वास्ते उलटी बात ठीक लगती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे