।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७३, सोमवार
गीतामें अवतारवाद


(गत ब्लॉगसे आगेका)

एक दृष्टिसे भगवान्‌का अवतार नित्य है । इस संसाररूपसे भगवान्‌का ही अवतार है । साधकोंके लिये साध्य और साधनरूपसे भगवान्‌का अवतार है । भक्तोंके लिये भक्तिरूपसे, ज्ञानयोगियोंके लिये ज्ञेयरूपसे और कर्मयोगियोंके लिये कर्तव्यरूपसे भगवान्‌का अवतार है । भूखोंके लिये अन्नरूपसे, प्यासोंके लिये जलरूपसे, नंगोंके लिये वस्त्ररूपसे और रोगियोंके लिये ओषधिरूपसे भगवान्‌का अवतार है । भोगियोंके लिये भोगरूपसे और लोभियोंके लिये रुपये, वस्तु आदिके रूपसे भगवान्‌का अवतार है । गरमीमें छायारूपसे और सरदीमें गरम कपड़ोंके रूपसे भगवान्‌का अवतार है । तात्पर्य है कि जड़-चेतन, स्थावर-जंगम आदिके रूपसे भगवान्‌का ही अवतार है; क्योंकि वास्तवमें भगवान्‌के सिवाय दूसरी कोई चीज है ही नहीं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९); ‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९)परन्तु जो संसाररूपसे प्रकट हुए प्रभुको भोग्य मान लेता है, अपनेको उसका मालिक मान लेता है, उसका पतन हो जाता है, वह जन्मता-मरता रहता है ।

जो लोग यह मानते है कि भगवान् निराकार ही रहते है, साकार होते ही नहीं; उनकी यह धारणा बिलकुल गलत है; क्योंकि मात्र प्राणी अव्यक्त (निराकार) और व्यक्त (साकार) होते रहते हैं । तात्पर्य है कि सम्पूर्ण प्राणी पहले अव्यक्त थे, बीचमें व्यक्त हो जाते हैं और फिर वे अव्यक्त हो जाते हैं (२ । २८) । पृथ्वीके भी दो रूप हैं‒निराकार और साकार । पृथ्वी तन्मात्रारूपसे निराकार और स्थूलरूपसे साकार रहती है । जल भी परमाणुरूपसे निराकार और भाप, बादल, ओले आदिके रूपसे साकार रहता है । वायु निःस्पन्दरूपसे निराकार और स्पन्दनरूपसे साकार रहती है । अग्नि दियासलाई, काष्ठ, पत्थर आदिमें निराकाररूपसे रहती है और घर्षण आदि साधनोंसे साकार हो जाती है । इस तरह मात्र सृष्टि निराकार-साकार होती रहती है । सृष्टि प्रलय-महाप्रलयके समय निराकार और सर्ग-महासर्गके समय साकार रहती है । जब प्राणी भी निराकार-साकार हो सकते हैं, पृथ्वी, जल आदि महाभूत भी निराकार-साकार हो सकते हैं, सृष्टि भी निराकार-साकार हो सकती है, तो क्या भगवान् निराकार-साकार नहीं हो सकते ? उनके निराकार-साकार होनेमें क्या बाधा है ? इसलिये गीतामें भगवान्‌ने कहा है कि यह सब संसार मेरे अव्यक्त स्वरूपसे व्याप्त है‒‘मया ततमिद सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’(९ । ४) यहाँ भगवान्‌ने अपनेकी ‘मया’ पदसे व्यक्त (साकार) और ‘अव्यक्तमूर्तिना’ पदसे अव्यक्त (निराकार) बताया है । सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भगवान्‌ने बताया है कि जो मेरेको अव्यक्त (निराकार) ही मानते हैं, व्यक्त (साकार) नहीं, वे बुद्धिहीन हैं; और जो मेरेको व्यक्त (साकार) ही मानते हैं, अव्यक्त (निराकार) नहीं, वे भी बुद्धिहीन हैं; क्योंकि वे दोनों ही मेरे परमभावको नहीं जानते ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे