(गत ब्लॉगसे आगेका)
फलासक्ति तथा कर्तृत्वाभिमानके त्यागका उपदेश तो अन्य शास्त्रोंमें
भी मिलता है, पर सम्पूर्ण कर्मोंको भगवदर्पण करनेका उपदेश विशेषरूपसे गीतामें
ही मिलता है‒
‘मयि सर्वाणि कर्माणि सन्यस्याध्यात्मचेतसा’ (३ । ३०)
‘तू विवेकवती बुद्धिके द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको
मेरे अर्पण कर ।’
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय
तस्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
(९ । २७)
‘हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे ।’
‘मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाक्यसि’ (१२ । १०)
‘मेरे लिये कर्मोंको करता हुआ भी तू सिद्धिको
प्राप्त हो जायगा ।’
गीतामें भगवान् सम्पूर्ण योगियोंमें भी अपने (सगुणोपासक) भक्तको
सर्वश्रेष्ठ योगी मानते हैं‒
योगिनामपि सर्वेषां
मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
(६ । ४७)
‘सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त
मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है ।’
कारण कि भक्त भगवान्के समग्ररूपको जान लेता है‒
‘असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु’ (७ । १)
ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), अध्यात्म (अनन्त योनियोंके अनन्त जीव), कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदिकी सम्पूर्ण क्रियाएँ), अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पांचभौतिक शरीर), अधिदैव (मन-इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ देवतासहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता)
और अधियज्ञ (अन्तर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप)‒यह भगवान्का समग्र रूप है[†] । तात्पर्य है कि भक्तको ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’‒इस तत्त्वका
अनुभव हो जाता है, जो अत्यन्त दुर्लभ है‒‘वासुदेवः सर्वमिति
स महात्मा सुदुर्लभः’ (७ । ९) । गीतामें ‘महात्मा’, ‘युक्ततम’, ‘सर्ववित्’ आदि विशेषण भी भक्तके लिये ही आये हैं ।[‡] इससे सिद्ध होता है कि गीतामें भगवद्भक्तका सर्वाधिक आदर किया
गया है । भगवान्ने भी स्पष्टरूपसे अपने भक्तका ही पक्ष लिया है‒
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
(९ । २९)
‘मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ । उन प्राणियोंमें
न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है । परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते
हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
[*] ‘यावान्-तावान्’ (मैं जितना हूँ और जो हूँ)‒यह बात निर्गुणमें नहीं हो सकती, प्रत्युत सगुणमें ही हो सकती है ।
ते ब्रह्म तद्विदु कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्
॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः
॥
(७ । २९-३०)
वासुदेवः सर्वमिति
स महात्मा सुदुर्लभः ॥ (७ । १९)
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मान
संसिद्धिं परमां गताः ॥ (८ । १५)
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः
।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ (९ । १३)
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो
मां स मे युक्ततमो मतः ॥ (६ । ४७)
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते
मे युक्ततमा मताः ॥ (१२ । २)
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ (१५ । १९)
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