।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
सर्वश्रेष्ठ हिन्दूधर्म और उसके ह्रासका कारण



सर्वश्रेष्ठ धर्म

संसारमें मुख्यरूपसे चार धर्म प्रचलित हैं‒हिन्दूधर्म (सनातनधर्म), मुस्लिमधर्म, बौद्धधर्म और ईसाईधर्म । इन चारों धर्मोंमेंसे एक-एक धर्मको माननेवाले करोड़ों मनुष्य हैं । इन चारों धर्मोंमें भी अवान्तर कई धर्म हैं । हिन्दूधर्मको छोड़कर शेष तीनों धर्मोंके मूलमें धर्म चलानेवाला कोई व्यक्ति मिलेगा; जैसे‒मुस्लिमधर्मके मूलमें मोहम्मद साहब, बौद्धधर्मके मूलमें गौतम बुद्ध और ईसाईधर्मके मूलमें ईसामसीह मिलेंगे । परन्तु हिन्दूधर्मके मूलमें कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा । कारण कि हिन्दूधर्म किसी व्यक्तिके द्वारा चलाया हुआ धर्म नहीं है, प्रत्युत यह अनादिकालसे चला आ रहा है । जैसे भगवान् सनातन (शाश्वत) हैं, ऐसे ही हिन्दूधर्म भी सनातन है । इसलिये हिन्दूधर्मको ‘सनातनधर्म’ भी कहते हैं । भगवान्‌ने भी इस सनातनधर्मको अपना स्वरूप बताया है‒‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहं....शाश्वतस्य च धर्मस्य॰’ (गीता १४ । २७) । जिस युगमें जब-जब इस सनातनधर्मका ह्रास होता है, हानि होती है, तब-तब भगवान् अवतार लेकर इसकी संस्थापना करते हैं ।[*] तात्पर्य है कि भगवान् भी इसकी संस्थापना, रक्षा करनेके लिये ही अवतार लेते हैं, इसको बनाने अथवा उत्पन्न करनेके लिये नहीं । अर्जुनने भी भगवान्‌को सनातनधर्मका रक्षक बताया है‒‘त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता’ (गीता ११ । १८)

एक उपज होती है और एक खोज होती है । जो वस्तु पहले मौजूद न हो, उसकी उपज होती है; और जो वस्तु पहलेसे ही मौजूद हो, उसकी खोज होती है । मुस्लिम, बौद्ध और ईसाई‒ये तीनों ही धर्म व्यक्तिके मस्तिष्ककी उपज हैं । परन्तु सनातन हिन्दूधर्म किसी व्यक्तिके मस्तिष्ककी उपज नहीं है, प्रत्युत यह विभिन्न ऋषियोंके द्वारा किया गया अन्वेषण (खोज) है‒‘ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः’ । अतः हिन्दूधर्मके मूलमें किसी व्यक्तिविशेषका नाम नहीं लिया जा सकता । यह अनादि, अनन्त और शाश्वत है । अन्य सभी धर्म तथा मत-मतान्तर भी इसी हिन्दूधर्मसे उत्पन्न हुए हैं । इसलिये उन धर्मोंमें मनुष्योंके कल्याणके लिये जो साधन बताये गये हैं, उनको भी हिन्दूधर्मकी ही देन मानना चाहिये । अतः उन धर्मोंमें बताये गये अनुष्ठानोंका भी निष्कामभावसे कर्तव्य समझकर पालन किया जाय तो कल्याण होनेमें सन्देह नहीं करना चाहिये[†]

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘आवश्यक चेतावनी’ पुस्तकसे


[*] यदा यदा हि धर्मस्य  ग्लानिर्भवति  भारत ।
   अभ्युत्थानमधर्मस्य  तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
   परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
   धर्मसंस्थापनार्थाय    सम्भवामि  युगे  युगे ॥

                                               (गीता ४ । ७-८)

[†] प्रत्येक धर्ममें कुधर्म, अधर्म और परधर्म‒ये तीनों होते हैं । दूसरेके अनिष्टका भाव, कूटनीति आदि ‘कुधर्म’ है, यज्ञमें पशुबलि देना आदि ‘अधर्म’ है और जो अपने लिये निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण आदिका धर्म ‘परधर्म’ है । कुधर्म, अधर्म और परधर्म‒इन तीनोंसे कल्याण नहीं होता । कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें स्वार्थ और अभिमानके त्यागपूर्वक अपना तथा दूसरेका वर्तमान और भविष्यमें हित होता हो ।