(गत ब्लॉगसे आगेका)
जन्मदिन आनेपर बड़ा आनन्द मनाते हैं कि हम इतने वर्षके हो गये
। वास्तवमें इतने वर्षके हो नहीं गये, प्रत्युत इतने वर्ष मर गये अर्थात् हमारी उम्रमेंसे इतने वर्ष
कम हो गये और मौत नजदीक आ गयी !
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बालक जन्मता है तो वह बड़ा होगा कि नहीं,
पढ़ेगा कि नहीं, उसका विवाह होगा कि नहीं,
उसके बाल-बच्चे होंगे कि नहीं,
उसके पास धन होगा कि नहीं आदि सब बातोंमें सन्देह है,
पर वह मरेगा कि नहीं‒इसमें कोई सन्देह नहीं है !
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तत्त्वज्ञान
परमात्मतत्त्वका ज्ञान करण-निरपेक्ष है । इसलिये उसका अनुभव
अपने-आपसे ही हो सकता है, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदि
करणोंसे नहीं ।
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जबतक नाशवान् वस्तुओंमें सत्यता दीखेगी,
तबतक बोध नहीं होगा ।
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बोध होनेपर अपनेमें दोष तो रहते नहीं और गुण (विशेषता) दीखते
नहीं ।
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जो हमारा स्वरूप नहीं है, उसका त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) कर दिया
जाय तो जो हमारा स्वरूप है, उसका बोध हो जायगा ।
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साधकमें कोई भी आग्रह नहीं रहना चाहिये,
न द्वैतका, न अद्वैतका । आग्रह रहनेसे बोध नहीं होता ।
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जबतक अहम् है, तबतक तत्त्वज्ञानका अभिमान तो हो सकता है,
पर वास्तविक तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता ।
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जबतक अपनेमें राग-द्वेष हैं,
तबतक तत्त्वबोध नहीं हुआ है, केवल बातें सीखी हैं ।
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तत्त्वज्ञान होनेमें कई जन्म नहीं लगते,
उत्कट अभिलाषा हो तो मिनटोंमें हो सकता है;
क्योंकि तत्त्व सदा-सर्वदा विद्यमान है ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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