वरिष्ठोऽखिलधर्मेषु धर्म एव सनातनः
।
जायन्ते सर्वधर्मस्तु शाश्वतो हि सनातनः ॥
संसारमें मुख्यरूपसे चार धर्म प्रचलित हैं‒सनातनधर्म,
मुस्लिमधर्म, बौद्धधर्म और ईसाईधर्म । इन चारों धर्मोंमेंसे एक-एक धर्मको
माननेवाले करोड़ों आदमी हैं । इन चारों धर्मोंमें भी अवान्तर कई धर्म हैं । सनातनधर्मको
छोड़र शेष तीनों धर्मोंके मूलमें धर्म चलानेवाला कोई व्यक्ति मिलेगा;
जैसे‒मुस्लिमधर्मके मूलमें मोहम्मद साहब,
बौद्धधर्मके मूलमें गौतम बुद्ध और ईसाईधर्मके मूलमें ईसा मसीह
मिलेंगे । परंतु सनातनधर्मके मूलमें कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा
। कारण यह है कि सनातनधर्म किसी व्यक्तिके द्वारा चलाया हुआ धर्म नहीं है । यह तो अनादिकालसे
चलता आ रहा है । जैसे भगवान् शाश्वत (सनातन) हैं,
ऐसे ही सनातनधर्म भी शाश्वत है । भगवान्ने भी सनातनधर्मको अपना
स्वरूप बताया है‒ ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहं......शाश्वतस्य
च धर्मस्य’ (१४ । २७) । जिस-जिस युगमें जब-जब इस सनातनधर्मका ह्रास होता है,
हानि होती है, तब-तब भगवान् अवतार लेकर इसकी संस्थापना करते हैं (४ । ७‒८)
। तात्पर्य यह है कि भगवान् भी इसकी संस्थापना, रक्षा
करनेके लिये ही अवतार लेते है; इसको बनानेके लिये, उत्पन्न
करनेके लिये नहीं । अर्जुनने भी
भगवान्को सनातनधर्मका रक्षक बताया है‒‘त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता’
(११ । १८) ।
एक उपज होती है और एक खोज होती है । जो वस्तु पहले मौजूद न हो,
उसकी उपज होती है; और जो वस्तु पहलेसे ही मौजूद हो,
उसकी खोज होती है । मुस्लिम, बौद्ध
और ईसाई‒ये तीनों ही धर्म व्यक्तिके मस्तिष्ककी उपज है; परंतु
सनातनधर्म किसी व्यक्तिके मस्तिष्ककी उपज नहीं है, प्रत्युत यह विभिन्न ऋषियोंके द्वारा
किया गया अन्वेषण है, खोज है‒‘ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः’
। अतः सनातनधर्मके मूलमें किसी व्यक्तिविशेषका नाम नहीं लिया
जा सकता । यह अनादि, अनन्त एवं शाश्वत है । अन्य सभी धर्म
तथा मत-मतान्तर भी इसी सनातनधर्मसे उत्पन्न हुए है । इसलिये उन धर्मोंमें मनुष्योंके
कल्याणके लिये जो साधन बताये गये हैं, उनको
भी सनातनधर्मकी ही देन मानना चाहिये । अतः उन धर्मोंमें बताये गये अनुष्ठानोंका भी निष्कामभावसे कर्तव्य समझकर पालन
किया जाय तो कल्याण होनेमें संदेह नहीं करना चाहिये[*] । प्राणिमात्रके कल्याणके लिये जितना गहरा विचार सनातनधर्ममें
किया गया है, उतना दूसरे धर्मोंमें नहीं मिलता । सनातनधर्मके सभी सिद्धान्त पूर्णतया वैज्ञानिक और कल्याण करनेवाले हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
[*] प्रत्येक धर्ममें कुधर्म, अधर्म और परधर्म‒ये तीनों होते हैं । दूसरेके
अनिष्टका भाव, कूटनीति आदि ‘धर्ममें कुधर्म’ है; यज्ञमें पशुबलि देना आदि ‘धर्ममें अधर्म’
है; और जो अपने लिये निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण आदिका धर्म ‘धर्ममें परधर्म’ है । कुधर्म, अधर्म और परधर्म‒इन तीनोंसे कल्याण नहीं होता । कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें
अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग एवं दूसरेका वर्तमान और भविष्यमें हित होता हो ।
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