(गत ब्लॉगसे आगेका)
कामनापूर्वक किया गया सब कार्य असत् है,
उसका फल नाशवान् होगा ।
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कुछ भी चाहना गुलामी है और कुछ नहीं चाहना आजादी है ।
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वस्तुके न मिलनेसे
हम अभागे नहीं हैं, प्रत्युत भगवान्के अंश होकर भी हम नाशवान् वस्तुकी इच्छा
करते हैं‒यही हमारा अभागापन है ।
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सुखकी
इच्छासे ही द्वैत होता है । सुखकी इच्छा न हो तो द्वैत है ही नहीं ।
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जबतक शरीरको
अपना मानते रहेंगे, तबतक हमारी कामना नहीं मिट सकती ।
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विचार करें,
कामनाकी पूर्ति होनेपर भी हम वही रहते हैं और अपूर्ति होनेपर भी हम वही रहते हैं,
फिर कामनाकी पूर्तिसे हमें क्या मिला और अपूर्तिसे हमारी क्या हानि हुई ? हमारेमें
क्या फर्क पड़ा ?
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गुरु और शिष्य
जो दुनियाका गुरु बनता है,
वह दुनियाका गुलाम हो जाता है और जो अपने-आपका गुरु बनता है,
वह दुनियाका गुरु हो जाता है ।
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कल्याण-प्राप्तिमें खुदकी लगन काम आती है । खुदकी लगन न हो तो
गुरु क्या करेगा ? शास्त्र क्या करेगा ?
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जो हमसे कुछ भी चाहता है,
वह हमारा गुरु कैसे हो सकता है ?
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पुत्र और शिष्यको अपनेसे श्रेष्ठ बनानेका विधान तो है,
पर अपना गुलाम बनानेका विधान नहीं है ।
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गुरुमें मनुष्यबुद्धि करना और मनुष्यमें गुरुबुद्धि करना अपराध
है, क्योंकि गुरु तत्त्व है, शरीरका नाम गुरु नहीं है ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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