(गत ब्लॉगसे आगेका)
सर्वथा निर्दोष जीवन तो सबका हो सकता है,
पर सर्वथा दोषी जीवन कभी किसीका हो ही नहीं सकता;
क्योंकि भगवान्का अंश होनेसे जीव स्वयं निर्दोष है । दोष आगन्तुक
हैं और नाशवान्के संगसे आते हैं ।
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साधक जब अपने दोषोंको दोषरूपसे देखकर उनके दुःखसे दुःखी हो जाता
है, उनका रहना उसे असह्य हो जाता है, तो फिर उसके दोष ठहर नहीं सकते । भगवान्की कृपा उन दोषोंका
शीघ्र ही नाश कर देती है ।
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जितने भी विकार हैं,
वे सब नाशवान् वस्तुको महत्त्व देनेसे ही पैदा होते हैं ।
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ठगनेमें दोष है, ठगे जानेमें दोष नहीं है ।
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सबमें भगवद्भाव करनेसे सम्पूर्ण विकारोंका नाश हो जाता है ।
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सन्तोषसे काम, क्रोध और लोभ‒तीनों नष्ट हो जाते हैं ।
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दोषोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । गुणोंकी कमीका नाम ही दोष
है और वह कमी असत्को सत्ता और महत्ता देनेसे ही आती है ।
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सभी विकार विकारी (शरीर) में ही होते हैं,
निर्विकार (स्वरूप) में कोई विकार नहीं होता ।
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मूल दोष एक ही है, जिससे सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं,
वह है‒संसारका सम्बन्ध । इसी तरह मूल गुण भी एक ही है,
जिससे सम्पूर्ण गुण प्रकट होते हैं,
वह है‒भगवान्का सम्बन्ध ।
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लोभके कारण आवश्यक वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती और प्राप्त वस्तुका
सदुपयोग नहीं होता ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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