(गत ब्लॉगसे आगेका)
मरनेपर स्वभाव साथ जायगा,
धन साथ नहीं जायगा । परन्तु मनुष्य स्वभावको तो बिगाड़ रहा है
और धनको इकट्ठा कर रहा है । बुद्धिकी बलिहारी है !
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रुपये मिलनेसे मनुष्य स्वाधीन नहीं होता,
प्रत्युत रुपयोंके पराधीन होता है;
क्योंकि रुपये ‘पर’ हैं ।
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धनके रहते हुए तो मनुष्य सन्त बन सकता है,
पर धनकी लालसा रहते हुए मनुष्य सन्त नहीं बन सकता ।
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दरिद्रता धन मिलनेसे नहीं मिटती,
प्रत्युत धनकी इच्छा छोड़नेसे मिटती है ।
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मनुष्यकी इज्जत धन बढ़नेसे नहीं है, प्रत्युत धर्म बढ़नेसे है
।
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धनसे वस्तु श्रेष्ठ है,
वस्तुसे मनुष्य श्रेष्ठ है,
मनुष्यसे विवेक श्रेष्ठ है और विवेकसे भी सत्-तत्त्व (परमात्मा)
श्रेष्ठ है । मनुष्यजन्म उस सत्-तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये ही है ।
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नामजप
साधककी समझमें चाहे कुछ न आता हो,
उसको भगवान्की शरण लेकर भगवन्नाम-जप तो आरम्भ कर ही देना चाहिये
।
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भगवन्नामका जप और कीर्तन‒दोनों कलियुगसे रक्षा करके उद्धार करनेवाले
हैं ।
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नामजपमें प्रगति होनेकी पहचान यह है कि नामजप छूटे नहीं ।
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नामजपमें रुचि नामजप करनेसे ही होती है ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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