एक ही समग्र भगवान् उपासकोंकी प्रकृति, श्रद्धा-विश्वास, रुचि आदिको लेकर विष्णु, सूर्य, शिव, गणेश और शक्ति‒इन पाँच रूपोंको
धारण करते हैं । भगवान्के इन पाँचों रूपोंको लेकर वैष्णव, सौर, शैव, गाणपत और शाक्त‒ये पाँच सम्प्रदाय
चले हैं । भगवान् विष्णुके भक्त ‘वैष्णव’ कहलाते हैं । विष्णुके अवतार राम, कृष्ण, नृसिंह आदिके भक्त भी वैष्णव कहलाते हैं । भगवान् सूर्यके भक्त
‘सौर’ कहलाते हैं । भगवान् शंकरके भक्त ‘शैव’ कहलाते हैं । उत्तर भारतमें वैष्णव अधिक
हैं और दक्षिण भारतमें शैव अधिक हैं । भगवान् शंकरके दो पुत्र हुए‒कार्तिकेय और गणेश
। इन दोनोंका पूजन दक्षिणमें बहुत होता है । गणेशके भक्त ‘गाणपत’ कहलाते हैं । ब्रह्मवैवर्तपुराणमें
कथा आती है कि पार्वतीजीके द्वारा पुण्यकव्रतका अनुष्ठान करनेसे भगवान् श्रीकृष्ण ही
उनके पुत्र गणेशरूपसे प्रकट हुए थे । शक्तिके उपासक ‘शाक्त’ कहलाते हैं । लक्ष्मी, सीता, राधा, पार्वती, दुर्गा आदि जितनी भी देवियाँ हैं, वे सब शक्तिका ही स्वरूप हैं
। इस प्रकार पाँचों सम्प्रदायोंके अनुयायी अपने-अपने इष्टको साक्षात् ईश्वर मानते हैं
और शेष चारोंको देवता मानते हैं । जब भगवान्के इन पाँचों रूपोंमेंसे किसी एक रूपका
मन्दिर बनता है, तब वह एक रूप मुख्य (ईश्वररूपसे) होता है और शेष चारों रूप गौण
(देवतारूपसे) होते हैं । इन पाँचोंमें
भी गणेशजीका स्थान विशेष महत्त्व रखता है; क्योंकि प्रत्येक शुभ कार्यमें सर्वप्रथम गणेशजीका ही पूजन होता
है । इतना महत्त्व अन्य किसीका नहीं है ।
एक बार देवताओंमें यह विचार हुआ कि सर्वप्रथम पूजनीय कौन है
। इसका निर्णय करनेके लिये यह शर्त रखी गयी कि जो सम्पूर्ण पृथ्वीकी परिक्रमा करके
सबसे पहले आ जायगा, वही सबसे पहले पूजनीय होगा । सभी देवता अपने-अपने वाहनोंपर चढ़कर
रवाना हो गये । गणेशजीने अपने माता-पिता (शंकर-पार्वती)-की परिक्रमा कर ली और बैठ गये
। शास्त्रोंमें माताको पृथ्वीसे भी अधिक भारी और पिताको आकाशसे भी अधिक ऊँचा बताया
गया है‒
माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा ।
(महा॰, वन॰ ३१३ । ६०)
अतः माता-पिताकी परिक्रमासे पृथ्वीकी परिक्रमा हो गयी । इस प्रकार
गणेशजीकी परिक्रमा सबसे पहले हो गयी और वे सर्वप्रथम पूजनीय हो गये । कहीं-कहीं ऐसा
वर्णन भी मिलता है कि गणेशजीने पृथ्वीपर ‘राम’ नाम लिखकर उसकी परिक्रमा कर ली । गोस्वामीजी
महाराजने भी लिखा है‒
महिमा जासु जान गनराऊ ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ॥
(मानस, बाल॰ १९ । २)
जब भगवान् शंकरका विवाह हुआ, तब सर्वप्रथम गणेशजीका पूजन हुआ । इसपर शंका होती है कि अभी तो पार्वतीजीका विवाह
हुआ है, गणेशजीका जन्म तो बादमें होगा । इसका समाधान गोस्वामीजी महाराजने
इस प्रकार किया है‒‘सुर अनादि जियँ जानि’ (मानस, बाल॰ १००) अर्थात् देवता अनादि हैं । जैसे भगवान् अनादि हैं और वे अवतार लेकर किसी भी
रूपको धारण करें, सदा वैसे-के-वैसे ही रहते हैं, ऐसे ही भगवान् गणेश भी अनादि हैं
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे |