।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
साधनकी मुख्य बाधा



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         सावधानी ही साधना है । अतः साधक हर समय सावधान रहता है कि कहीं कोई साधन-विरुद्ध क्रिया न हो जाय ! राग-द्वेष, काम-क्रोधादिकी वृत्तियाँ आनेपर भी वह उनके अनुसार क्रिया नहीं करता । अगर अपनी आदतसे अथवा भूलसे कोई साधन-विरुद्ध क्रिया हो भी जाय, तो भी उसका उद्देश्य साधन-विरुद्ध क्रिया करनेका होता ही नहीं । जान-बूझकर वह कोई साधन-विरुद्ध क्रिया नहीं करता ।

         जैसे, कोई आदमी धन कमाता है और समय-समयपर उसको खर्च भी करता रहता है तो वह धनका असली लोभी नहीं है । जो असली लोभी होगा, वह कठिनता भोग लेगा, पर जानबूझकर पैसा खर्च नहीं करेगा । यहाँसे वहाँतक जानेमें चार पैसे भी लगते हों तो वह पैदल चला जायगा, पर चार पैसे खर्च नहीं करेगा । इसी तरह साधकमें भी साधनका लोभ होना चाहिये । उसको आँखमें तिनकेकी तरह साधनकी थोड़ी-सी भी हानि सहन नहीं होनी चाहिये । जो साधक साधनका लोभी होता है, उससे अगर कोई साधन-विरुद्ध क्रिया हो जाय तो उसको दुःख होता है, पश्चाताप होता है । ऐसा होनेसे साधन-विरुद्ध क्रिया होनी बन्द हो जाती है ।

         परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति न स्त्रीको होती है, न पुरुषको होती है; न साधुको होती है, न गृहस्थको होती है, न ब्राह्मणको होती है, न क्षत्रियको होती है अर्थात् भगवत्प्राप्ति किसी जाति, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके व्यक्तिको नहीं होती, प्रत्युत साधकको होती है । अतः जो साधक होता है, वह स्त्री, पुरुष, साधु, गृहस्थ आदि नहीं होता  । तात्पर्य है कि साधकमें न तो जाति, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका अभिमान है, न इनका आग्रह होता है और न दूसरोंके प्रति नीचा भाव होता है ।

         प्रश्न–साधकका लक्षण क्या है ?

        उत्तर–साधकका लक्षण है–संसारसे वैराग्य और परमात्मासे प्रेम ।

         प्रश्न–सज्जन और साधकमें क्या फर्क है ?

        उत्तर–जिसके आचरण और विचार अच्छे हैं, जो सद्गुणी और सदाचारी है, वह ‘सज्जन’ होता है और जिसमें भगवत्प्राप्तिकी, कल्याणकी उत्कण्ठा है, वह ‘साधक’ होता है । साधक तो सज्जन होता ही है, पर सज्जन साधक होता हो–यह नियम नहीं है ।

         जो दूसरोंके मत, सम्प्रदायकी निन्दा करता है, उनका खण्डन करता है, विरोध करता है, वह सज्जन तो हो सकता है, पर साधक नहीं हो सकता । साधक वही होता है, जो अपने मत, सम्प्रदायका अनुसरण तो करता है, पर दूसरोंके मत, सम्प्रदायकी निन्दा, खण्डन, घृणा नहीं करता ।

         प्रश्न–साधकका व्यवहार कैसा होता है ?

        उत्तर–वह अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करता है; अपने सुख-आरामका त्याग करके दूसरोंको सुख-आराम देता है; अपनी मान-बड़ाईका त्याग करके दूसरोंको मान बड़ाई देता है–‘सबहि मानप्रद आपु अमानी’ (मानस ७/३८/२)वह किसीके भी प्रति बुराभाव नहीं रखता । अगर उसको किसीमें दोष दीखते हैं तो वह ऐसा मानता है कि ये दोष शरीरमें, अन्तःकरणमें, स्वभावमें हैं, स्वयंमें नहीं हैं । जैसे किसीके कपड़ेमें दाग लग जाय तो वह खुद दागवाला नहीं हो जाता, ऐसे ही अन्तःकरण आदिमें दोष होनेसे वह स्वयं दोषी नहीं हो जाता । इस तरह साधक किसीको भी बुरा नहीं मानता और दूसरोंको भी वह प्रायः बुरा नहीं लगता–‘यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः’ (गीता १२/१५)

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘साधन-सुधा-सिंधु’ पुस्तकसे