Aug
01
मनुष्य-जीवन तभी सफल
होता है, जब कुछ भी ‘करना’ बाकी न रहे, कुछ भी ‘जानना’ बाकी न रहे और कुछ भी
‘पाना’ बाकी न रहे । जो करना था, सब कर लिया; जो जानना था, सब जान लिया; और
जो पाना था, सब पा लिया–इस प्रकार पूरा कर ले, पूरा जान ले और पूरा पा ले तो
मनुष्य-जन्म सफल हो जाता है । इन तीनोंमेंसे अगर एक भी
पूरा हो जाय तो बाकी दो आप-से-आप पूरे हो जायँगे । ‘करना’ पूरा हो जाय तो
जानना और पाना भी पूरा हो जायगा । ‘जानना’ पूरा हो जाय तो करना और पाना भी पूरा हो
जायगा । ‘पाना’ पूरा हो जाय तो करना और जानना भी पूरा हो जायगा । ये तीनों ही हम कर
सकते हैं । हम ये ही कर सकते हैं और कुछ नहीं कर सकते; यह विलक्षण बात है ।
करना
कब पूरा होगा ?–आपलोग ध्यान देकर सुनें, बहुत बढ़िया बात है । करना तब पूरा होगा, जब अपने लिये कुछ नहीं करेंगे । अपने लिये
करनेसे करना कभी पूरा होगा ही नहीं, सम्भव ही नहीं । कारण कि करनेका आरम्भ
और समाप्ति होती है और आप वही रहते हैं । अतः अपने लिये करनेसे करना बाकी रहेगा ही
। करना बाकी कब नहीं रहेगा ? जब अपने लिये न करके
दूसरोंके लिये ही करेंगे । घरमें रहना है तो घरवालोंकी प्रसन्नताके लिये रहना है ।
अपने लिये घरमें नहीं रहना है । समाजमें रहना है तो समाजवालोंके लिये रहना है,
अपने लिये नहीं । माँ है तो माँके लिये मैं हूँ, मेरे लिये माँ नहीं ।
माँकी सेवा करनेके लिये, माँकी प्रसन्नताके लिये मैं हूँ; इसलिये नहीं कि माँ
मेरेको रुपया दे दे, गहना दे दे, पूँजी दे दे । यहाँसे आप शुरू करो । स्त्रीके
लिये मैं हूँ, मेरे लिये स्त्री नहीं । मेरेको स्त्रीसे कोई मतलब नहीं । उसके
पालन-पोषणके लिये, गहने-कपड़ोंके लिये, उसके हितके लिये, उसके सुखके लिये ही मेरेको
रहना है । मेरे लिये स्त्रीकी जरूरत नहीं । बेटोंके लिये मैं हूँ, मेरे लिये बेटे
नहीं । इस तरह अपने लिये कुछ करना नहीं होगा, तब कृत्यकृत्य हो जाओगे । परन्तु यदि
अपने लिये धन भी चाहिये, अपने लिये माँ-बाप चाहिये, अपने लिये स्त्री चाहिये, अपने
लिये भाई चाहिये तो अनन्त जन्मोंतक करना पूरा नहीं होगा । अपने लिये करनेवालेका करना कभी पूरा
होता ही नहीं, होगा ही नहीं, हुआ भी नहीं, हो सकता भी नहीं ! इसमें आप सबका अनुभव बताता हूँ ।
किसी
कामको करनेसे पहले मनमें आती है कि अमुक काम करना है । मनमें आनेसे पहले आप जिस
स्थितिमें थे, काम पूरा करनेके बाद पुनः उसी स्थितिमें आ जाते हैं । मिला क्या ?
कुछ नहीं मिला । जैसे, पहले व्याख्यान देनेकी मनमें नहीं
थी । फिर व्याख्यान देनेकी मनमें आयी और व्याख्यान दिया । व्याख्यान देनेके बाद
मनमें व्याख्यान देनेकी नहीं रही तो वह पहलेवाली स्थितिमें आ गये । नयी बात क्या
हुई ? ऐसे ही पहले पढ़नेकी मनमें नहीं थी, फिर मनमें पढ़नेकी आयी और फिर विद्या
पढ़ी । अब पढ़नेकी मनमें नहीं रही । अतः पहले पढ़नेकी मनमें नहीं थी, उसी स्थितिमें
पीछे आये ।
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे |