।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७४, रविवार
             तत्त्वप्राप्तिमें देरी नहीं है


श्रोता–महाराजजी ! आप जो बात कहते हैं, वह युक्तिसे ठीक जँचती है, पर अकसर अपने अन्तःकरणकी स्थिति देखकर मन बिलकुल डाँवाडोल हो जाता है कि यहाँ तो पोल है सारी !
        
स्वामीजी–अब ध्यान देकर सुनना । अन्तःकरण ‘करण’ है कि ‘कर्ता’ है ? यह तो करण है और तत्त्व करणसाध्य (करणसे प्राप्त होनेवाला) नहीं है, वह तो करणनिरपेक्ष है । अगर वह करणसाध्य होता तो हम आपकी बात मान लेते कि हाँ, ठीक है । करणसाध्य वह होता है, जिसका निर्माण किया जाता है, जो कहींसे लाया जाता है, कहीं ले जाया जाता है, जिसमें परिवर्तन किया जाता है । इस तरह जिसमें क्रियाके द्वारा कुछ-न-कुछ विकृति आती है, वहाँ करण काम करता है । जिसमें विकृति नहीं आती, उसमें करण काम नहीं करता । तत्त्वप्राप्तिमें करणकी अपेक्षा नहीं है । करणसे तो सम्बन्ध-विच्छेद करना है । अरे भाई ! जिसको छोड़ना है, उसको शुद्ध और अशुद्ध क्या करना ? शुद्ध है तो छोड़ दिया, अशुद्ध है तो छोड़ दिया ।

श्रोता–महाराजजी ! ‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४/२४), ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’ (गीता १२/१३) आदि लक्षण दिखें, तब मालूम दे कि अन्तःकरण शुद्ध हुआ है । वैसे लक्षण दिखें नहीं तो यही दीखता है कि कुछ नहीं हुआ ।

स्वामीजी–देखो, मैंने कल रात भी कहा था और अब भी कहता हूँ । यह तो आपको विश्वास है कि मैं आपको धोखा नहीं देता हूँ ?
        
श्रोता–हाँ, विश्वास है ।

स्वामीजी–तो मैं आपको कहता हूँ कि आप भले ही कितने ही पापी हों, बड़े भारी पापी हों, पर अभी बोध हो सकता है । यह बात केवल मेरे लिये नहीं है । मेरे लिये होती तो आपको क्यों कहता ? आपके लिये, मेरे लिये–दोनोंके लिये यह बात है । हमारे पास पापोंका कितना ही बड़ा दर्जा हो, कितनी ही डिग्रीका पाप हो, इससे कोई मतलब नहीं । सभी पाप भस्मसात् हो जाते हैं ।

श्रोता–पापकी वासना भी उठती जाती है महाराजजी !

        स्वामीजी–पापकी वासना उठती है तो उठने दो । यह मेरी एक बात मान लो आप । पापकी मनमें आये तो आने दो, खराब संकल्प आये तो आने दो । आप इनसे डरो ही मत । इनकी कसौटी कसो ही मत । पाप टिक ही नही सकेंगे, भस्म हो जायँगे अपने-आप । पाप करणके ऊपर नहीं टिके हुए हैं । पाप कर्ताके ऊपर टिके हुए हैं । इसलिये करण शुद्ध नहीं है–इसकी क्यों चिन्ता करते है आप । कर्ता शुद्ध हो जाय तो करण आप-से-आप शुद्ध हो जायगा । इसपर विचार करो कि कर्ता शुद्ध होनेपर करण अशुद्ध कैसे रहेगा ? आप अगर ठीक हैं तो क्या कलम गलत लिखेगी ? कलम तो करण है और आप कर्ता हैं । गीताने ‘अपि चेदसि’ ‘अगर तू ऐसा है’–यह कहा है । ‘अगर करण ऐसा है’ यह नहीं कहा है ।     

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे