।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
               गणेशचतुर्थी, चन्द्र-दर्शन निषिद्ध
         नाशवान‌्की मुख्यतासे हानि


(गत ब्लॉगसे आगेका) 
   
  एक कायदा है कि जिसको मान लेते हैं, उसमें जिज्ञासा नहीं होती, शंका नहीं होती । वहाँ यह बात उत्पन्न ही नहीं होती कि यह क्या चीज है । अतः मानना ही हो तो भगवान्‌को मान लो । माननेके बाद फिर शंका मत करो, सन्देह मत करो । जैसे, ब्याह हो गया, तो हो गया, बस । अब उसमें कभी भी शंका नहीं, सन्देह नहीं होता, जिज्ञासा नहीं होती । जैसे बोध हो जानेपर अज्ञान नहीं होता, ऐसे ही मान लेनेपर मानना उलटा नहीं होता । मानना और जानना–दोनों मार्ग स्वतन्त्र हैं । मानना परमात्माको है और जानना स्वरूपको तथा संसारको है ।

   ये तीन बातें बड़े ध्यान देनेकी हैं कि हमारे पास जितनी चीजें हैं, वे पहले हमारी नहीं थीं, पीछे हमारी नहीं रहेगी और इस समय भी हमारेसे प्रतिक्षण अलग हो रही हैं । यहाँ आकार बैठे, उस समय जितनी उम्र थी, उतनी उम्र अब नहीं रही, मौत उतनी नजदीक आ गयी । शरीरका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । भगवान्‌ने कहा–‘अन्तवन्त इमे देहाः’ (गीता २/१८) अर्थात् ये शरीर अन्तवाले हैं । जैसे धनवान होता है, ऐसे ही ये शरीर अन्तवान् हैं, नाशवान् हैं । परन्तु जो सब जगह परिपूर्ण अविनाशी है, उसको मुख्यता न देकर विनाशीको मुख्यता दे रहे हैं–यहाँ गलती होती है । इसका सुधार कर लिया जाय तो सब सुधर जायगा ।

   मुख्यता स्वयंकी रहनी चाहिये । मुक्ति भी स्वयंकी होती है, शरीरकी नहीं । शरीरको अपना माननेसे ही बन्धन हुआ है । उलटा मान लिया–यही बन्धन है । अतः चाहे सुलटा मान लो, चाहे ठीक तरहसे जान लो कि बन्धन क्या है, मुक्ति क्या है । फिर काम ठीक हो जायगा । उलटा मान लेते हो और जानते हो नहीं–यही गलती है ।


 एक मिश्रीके पहाड़पर रहनेवाली कीड़ी (चींटी) थी और एक नमकके पहाड़पर रहनेवाली । मिश्रीके पहाड़वाली कीड़ीने दूसरी कीड़ीसे कहा कि तु यहाँ क्या करती है ? मेरे साथ चल । मिठास तो हमारे वहाँ है ! नमकके पहाड़वाली कीड़ी बोली कि क्या वहाँ इससे भी बढ़िया मिठास है ? दूसरी कीड़ी बोली कि कैसी बात करती है ! बढ़िया-घटियाकी बात तो तब हो, जब यहाँ मिठास हो । यहाँ मिठास है ही नहीं; यहाँ तो बिलकुल इससे विरुद्ध बात है । फिर वह नमकके पहाड़वाली कीड़ीको अपने वहाँ ले गयी और बोली कि देख, यहाँ कितना मिठास है । नमकके पहाड़वाली कीड़ी बोली कि मेरेको तो कोई फरक नहीं दीखता ! तुम कहती हो तो मैं हाँ-में-हाँ मिला दूँ, पर मेरेको तो वैसा ही स्वाद आ रहा है । मिश्रीके पहाड़वाली कीड़ीको आश्चर्य आया कि बात क्या है । उसने ध्यानसे देखा तो पता चला कि नमकके पहाड़वाली कीड़ीने अपने मुखमें नमककी डली पकड़ी हुई है, अब दूसरा स्वाद आये ही कैसे ? उसने कहा कि नमककी डलीको मुखसे निकाल, फिर देख इसका स्वाद । उसने नमककी डली मुखसे निकालकर मिश्रीको चखा तो बस, उसीके साथ चिपक गयी ! मिश्रीके पहाड़वाली कीड़ीने पूछा कि बता, कैसा स्वाद है ? तो वह बोली–हल्ला मत कर, चुप हो जा ! ऐसे ही आप सब बातें सुनते हैं, पर नमककी डलीको पकड़े रहते हैं कि शरीर सच्‍चा है, शरीरका मान-अपमान सच्‍चा है, शरीरका आराम सच्‍चा है, शरीरका सुख अच्छा है आदि । इस बातको ऐसे जोरसे पकड़े रहते हो कि कहीं यह ढीली न पड़ जाय, कहीं यह मान्यता शिथिल न पड़ जाय ! ऐसी सावधानी रखते हुए सत्संग करते हैं । वास्तवमें यह कुसंग (असत्‌का संग) हो रहा है, सत्संग नहीं हो रहा है । 

  (गत ब्लॉगसे आगेका)  
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे