।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७४,बुधवार
अष्टमी-श्राद्ध, जीवत्पुत्रिका-व्रत
सच्चे गुरुकी दुर्लभता



गुरवो बहवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः ।
तमेकं दुर्लभं मन्ये   शिष्यहृत्तापहारकम् ॥
                                      (गुरुगीता )

         ‘शिष्यके धनका हरण करनेवाले गुरु तो बहुत हैं, पर शिष्यके हृदयका ताप हरण करनेवाले गुरु दुर्लभ हैं ।’

         गीताने प्राणिमात्रके हितमें प्रीतिकी बात कही है‒‘सर्वभूतहिते रताः’ (५/२५, १२/४) । सच्चे सन्तोंकी दृष्टी प्राणियोंके हितकी तरफ रहती है, उनको अपनी तरफ खींचनेकी नहीं । वे न तो किसीको अपना चेला बनाते हैं, न अपनी टोली बनाते हैं और न किसीसे कुछ लेते हैं, प्रत्युत दूसरेका कल्याण कैसे हो‒इस तरफ दृष्टी रखते हैं और केवल शिष्योंके लिये ही नहीं, प्रत्युत प्राणिमात्रके कल्याणके लिये भगवान्‌से प्रार्थना करते हैं‒

सर्वे भवन्तु  सुखिनः      सर्वे  सन्तु  निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥

         कारण कि वे भुक्तभोगी होते हैं । अतः वे जानते हैं की संसारमें कितना दुःख है और संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेमें कितना सुख है । इसलिये वे चाहते हैं कि दूसरे लोग भी संसारके दुःखोंसे छूट जायँ और सदाके लिये परम सुखका अनुभव कर लें ।

         इस जमानेमें सच्चे सन्त-महात्मा देखनेको नहीं मिलते । सच्चे महात्मा पहले जमानेमें भी बहुत कम थे, वर्तमानमें तो विशेष कम हो गये हैं । वर्तमानमें तो गुरु बननेका एक पेशा (व्यवसाय) ही बन गया है । चेला इसलिये बनाते हैं कि अपनी जीविका चलती रहे, अपनी मनमानी होती रहे, अपनी मान-बड़ाई (शरीरका मान और नामकी बड़ाई) होती रहे, अपना स्वार्थ सिद्ध होता रहे । यही भाव चेलोंका भी रहता है !

गुरु लोभी सिष लालची,दोनों खेले दाँव ।
दोनों डूबापरसराम’, बैठ पथरकी नाँव ॥

         आजकल नकली चीजोंका जमाना है । ब्राह्मण भी नकली, क्षत्रिय भी नकली, वैश्य भी नकली, ब्रह्मचारी भी नकली, गृहस्थ भी नकली, वानप्रस्थ भी नकली, साधु भी नकली, यहाँतक कि साग-सब्जी, फूल-पत्ती, मिर्च-मसाले, दूध आदि भी नकली मिलते हैं । हर चीज नकली है तो गुरु भी नकली हैं‒

मिथ्यारंभ     दंभ    रत      जोई ।
ता कहुँ   संत   कहइ   सब   कोई ॥
निराचार जो   श्रुति   पथ त्यागी ।
कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥
(मानस, उत्तरकाण्ड ९८/२,४)

         साधु होनेमात्रसे कल्याण नहीं होता । मैंने खुद साधु होकर देखा है । इसलिये अपना कल्याण चाहनेवालोंको किसी मनुष्यके फेरेमें नहीं आना चाहिये, किसीको गुरु नहीं बनाना चाहिये ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे