।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७४,शनिवार
जगद्गुरु भगवान्‌की उदारता



     (गत ब्लॉगसे आगेका)
एक कथा आती है । एक सज्जनने एकादशीका व्रत किया । द्वादशीके दिन किसीको भोजन कराकर पारणा करना था, पर कोई मिला नहीं । वर्षा हो रही थी । ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आखिर एक बूढ़े साधु मिल गये । उनको भोजनके लिये घर बुलाया । उनको बैठाकर उनके सामने पत्तल परोसी तो वे चट खाने लग गये । उन सज्जनने कहा कि ‘महाराज, आपने भगवान्‌को भोग तो लगाया ही नहीं !’ वह साधु बोला कि ‘ भगवान्‌ क्या होता है ? तुम तो मूर्ख हो, समझते नहीं ।’ यह सुनते ही उन सज्जनने पत्तल खींच ली और बोला कि ‘भगवान्‌ कुछ नहीं होता तो तुम कौन होते हो ? हम भगवान्‌के नाते ही तो आपको भोजन कराते हैं ।’ उसी समय आकाशवाणी हुई कि ‘अरे ! मेरी निन्दा करते-करते यह साधु बूढ़ा हो गया, पर अभीतक मैं इसको भोजन दे रहा हूँ, तू एक समय भी भोजन नहीं दे सकता और मेरा भक्त कहलाता है ! अगर मैं भोजन न दूँ तो यह कितने दिन जीये ?’ आकाशवाणी सुनकर उनको बड़ी शर्म आयी और फिर उस साधुसे माफ़ी माँगकर उसको प्रेमपूर्वक भोजन कराया ।

ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं ॥
                                           (विनयपत्रिका १६२)

ऐसे परम उदार भगवान्‌के रहते हुए हम दुःख पा रहे हैं और गुरुजी हमें सुखी कर देंगे, हमारा उद्धार कर देंगे‒ यह कितनी ठगाई है ! अपने उद्धारके लिये हम खुद तैयार हो जायँ, बस, इतनी ही जरूरत है ।

भगवान्‌ महान् दयालु हैं । वे सबके जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध करते हैं तो क्या कल्याणका प्रबन्ध नहीं करेंगे ? इसलिये आप सच्‍चे हृदयसे अपने कल्याणकी चाहना बढ़ाओ और भगवान्‌से प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ ! मेरा कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय । मैं नहीं जानता कि कल्याण क्या होता है, पर मैं किसी भी जगह फँसूँ नहीं, सदाके लिये सुखी हो जाऊँ । हे नाथ ! मैं क्या करूँ ?’ भगवान्‌ सच्‍ची प्रार्थना अवश्य सुनते हैं‒

च्‍चे हृदयसे प्रार्थना,     जब भक्त सच्‍चा गाय है ।
तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है ॥

हमें अपने कल्याणकी जितनी चिन्ता है, उससे ज्यादा भगवान्‌को और सन्त-महात्माओंको चिन्ता है ! बच्‍चेको अपनी जितनी चिन्ता होती है, उससे ज्यादा माँको चिन्ता होती है, पर बच्‍चा इस बातको समझता नहीं ।

हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
                                (मानस, उत्तरकाण्ड ४७/३)

जो सच्‍चे हृदयसे भगवान्‌की तरफ चलता है, उसकी सहायताके लिये सभी सन्त-महात्मा उत्कण्ठित रहते हैं । सन्तोंके हृदयमें सबके कल्याणके लिये अपार दया भरी हुई रहती है । बच्‍चा भूखा हो तो उसको अन्न देनेका भाव किसके मनमें नहीं आता ?

अगर कोई सच्‍चे हृदयसे अपना कल्याण चाहते है तो भगवान्‌ अवश्य उसका कल्याण करते हैं । भगवान्‌ समान हमारा हित करनेवाला गुरु भी नहीं है‒

उमा राम सम हित जग माहीं ।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
                                             (मानस, किष्किन्धाकाण्ड १२/१)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

  ‒ ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे