Oct
01
(गत ब्लॉगसे आगेका)
बहुत समय बीतनेपर मेरे व्यापारमें घाटा लग गया और पैसोंकी
बड़ी तंगी हो गयी । तब मेरे मनमें विचार आया कि
मैंने बड़ी गलती की कि उस स्त्रीको छोड़ दिया ! अगर मैं उसको एक थप्पड़ लगाता तो
दस-पन्द्रह हजारका गहना मिल जाता । फिर आज यह तंगी नहीं भोगनी पड़ती । उसके ससुरने
रुपये दिये, पर वे भी मैंने नहीं लिये । पर अब क्या हो, बात हाथसे निकल गयी ! यह
उस समयकी बात है, जब आपके पिताजीका राज्य था । अब तो महाराज ! आपके सामने
कहनेमें शर्म आती है; क्योंकि आप मेरे पोतेकी तरह हो । पर आप पूछते हो तो कहता हूँ
। अब मेरे मनमें आती है कि उस स्त्रीको डरा-धमकाकर अथवा फुसलाकर अपनी स्त्री बना
लेता तो स्त्री भी आ जाती और गहना भी आ जाता ! आज इस अवस्थामें दोनों मेरे काम आते
। मैंने अपनी बात कह दी । आपका राज्य कैसा हैᅳयह मैं कैसे कहूँ ? राजा समझ गया कि यह बूढा बहुत बुद्धिमान है
! अपनी दशा कहकर बता दिया कि जैसा राजा होता है, वैसी प्रजा होती हैᅳ ‘यथा राजा तथा प्रजा ।’
तात्पर्य है कि हम गुरुकी परीक्षा तो नहीं कर
सकते, पर अपनी परीक्षा कर सकते हैं कि उनका संग करनेसे हमारे भावोंपर क्या असर पड़ा
? हमारे आचरणोंपर क्या असर पड़ा ? हमारे जीवनपर क्या असर पड़ा ? हमारे राग-द्वेष,
काम-क्रोध कितने कम हुए ?
प्रश्नᅳइतिहासमें
ऐसे उदाहरण भी आते हैं, जिनसे गुरु बनाना अनिवार्य सिद्ध होता है ?
उत्तरᅳइतिहासके
आधारपर सत्यका निर्णय नहीं हो सकता । इतिहासकी बात ठोस नहीं होती, पोली होती है ।
कारण कि किसी व्यक्तिने पूर्वके किस सम्बन्धसे और किस परिस्थितिमें क्या किया और
क्यों कियाᅳइसका पूरा
पता नहीं चल सकता । इसलिये इतिहासमें आयी अच्छी बातोंसे मार्गदर्शन तो हो सकता है, पर सत्यका निर्णय
शास्त्रके विधि-निषेधसे ही हो सकता है । इतिहाससे विधि प्रबल है और विधिसे भी
निषेध प्रबल है ।
गुरु-सम्बन्धी
अधिकतर बातोंका प्रचार उन्हीं लोगोंने किया है, जिनको गुरु बननेका शौक है । अतः
वर्तमान कलियुगमें विशेष सावधानीकी जरूरत है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे
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