मनुष्यके
देखनेमें दो चीजें आती हैं‒एक अविनाशी और दूसरा, नाशवान् ! स्वरूप अविनाशी है और
शरीर-संसार नाशवान् हैं । स्वरूपके विषयमें गीता और रामायणमें आया है‒
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । (गीता १५/७)
‘इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है ।’
ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज
सुखरासी ॥
(मानस, उत्तरकाण्ड ११७/१)
तात्पर्य है
कि हमारा सम्बन्ध शरीर-संसारके साथ नहीं है, प्रत्युत भगवान्का अंश होनेसे हमारा
सम्बन्ध भगवान्के साथ ही है । हमारेसे खास भूल यह हुई
है कि हमने अपनेको संसारका और संसारको अपना मान लिया अर्थात् शरीर-संसारके साथ
अपना सम्बन्ध जोड़ लिया ।
परमात्माके अंश होनेके कारण वास्तवमें हम परमात्मासे दूर हो
सकते ही नहीं और संसारके साथ मिलकर एक हो सकते ही नहीं‒यह एकदम पक्की, सिद्धान्तकी
बात है । परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध कभी टूट सकता ही नहीं । परन्तु
जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है, उसको तो भुला दिया और जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं
है, उसको अपना मान लिया‒यह हमारेसे बड़ी भारी गलती हुई है । अगर हम यह मान लें कि हम भगवान्के हैं और भगवान् हमारे हैं
तो ‘संसार हमारा नहीं है’‒यह अपने-आप सिद्ध हो जायगा । दोनोंमेंसे कोई एक सिद्ध कर
लें ।
विचार करें,
क्या जड़ तथा परिवर्तनशील संसारके साथ हमारी एकता हो सकती है ? अगर नहीं हो सकती तो
इस बातको मानना शुरू कर दें कि संसारके साथ हमारी
एकता नहीं है; इसके साथ एकता मानना गलती है । कम-से-कम
यह गलती भीतरसे हमारी समझमें आ जाय तो समय पाकर सब काम ठीक हो जायगा । अगर
संसारके साथ अपनी एकता मानें तो केवल नुकसान ही है, फायदा कोई नहीं है और एकता न
मानें तो केवल फायदा ही है, नुकसान कोई नहीं है ।
एकदम सच्ची
बात है कि शरीर अपने साथ नहीं रहेगा । जो चीज अपनी
नहीं है, वह अपने साथ कैसे रहेगी ? भगवान् अपने हैं, वे अपनेसे दूर कैसे
हो जायँगे ? न तो हम भगवान्से दूर हो सकते हैं और न
भगवान् ही हमसे दूर हो सकते हैं । शरीर, पदार्थ, रुपये, जमीन, मकान आदि
सब-के-सब नाशवान् हैं । ये हमारे साथ नहीं रह सकते और हम इनके साथ नहीं रह सकते ।
परन्तु भगवान्को हम जानें, चाहे न जानें, उनसे हमारा
कभी वियोग हो ही नहीं सकता‒यह पक्की बात है । शरीर चाहे स्थूल हो, चाहे
सूक्ष्म हो, चाहे कारण हो, वह सर्वथा प्रकृतिका हैं और हम अच्छे-मन्दे कैसे ही
हों, सर्वथा भगवान्के हैं । अगर यह बात समझमें आ जाय तो
हम आज ही जीवन्मुक्त हैं ! कारण कि
नाशवान् चीजोंको अपना मानकर ही हम बँधे हैं । जिनको अपना माना है, उनसे ही बँधे हैं ।
जिनको अपना नहीं माना, उनसे नहीं बँधे हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
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‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे |