Oct
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(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रेमकी जागृतिके बिना अहम्का सर्वथा नाश नहीं होता‒
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।
अभिअंतर मल कबहुं न जाई ॥
(मानस,
उत्तर॰४९/३)
मुक्त महापुरुषमें भी प्रेमकी एक माँग (भूख) रहती है
। इसलिये जो मुक्तिमें भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसको भगवान् अपना प्रेम
प्रदान करते हैं । इस दृष्टिसे मुक्ति भी साधन है और प्रेम साध्य है । प्रेमकी
प्राप्तिके बिना साधनकी पूर्णता नहीं होती ।
भगवान् ज्ञानस्वरूप होते हुए भी प्रेमके भूखे हैं । ज्ञानयोग तथा
कर्मयोगके मार्गसे मोक्षकी प्राप्ति होनेपर भी एक सूक्ष्म अहम् रहता है, जिसके
कारण भगवान्से दूरी और भेद तो मिट जाते हैं, पर उनसे अभिन्नता नहीं होती । यह
सूक्ष्म अहम् जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करनेवाला
होता है । इस सूक्ष्म अहम्के कारण ही मुक्त
महापुरुषोंमें तथा उनकी मान्यताओं और सिद्धान्तोंमें परस्पर मतभेद रहता है । परन्तु
प्रेमकी प्राप्ति होनेपर जब सूक्ष्म अहम् सर्वथा मिट जाता है, तब सम्पूर्ण मतभेद
मिट जाते हैं और भगवान्से अभिन्नता हो जाती है । अभिन्नता होनेपर एक भगवान्के
सिवाय अन्य किसीकी भी सत्ता नहीं रहती‒‘वासुदेवः सर्वम्’
(गीता ७/१९) ।
उपसंहार
उपनिषद्में आता है कि अकेलेमें भगवान्का मन नहीं लगा‒ ‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक॰१/४/३) । अतः खेल (प्रेम-लीला)-के लिये भगवान् एकसे अनेकरूप हो गये‒‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (तैत्तिरीय॰२/६) । उन अनेक रूपोंमें श्रीजी तो भगवान्के सम्मुख रहीं, पर जीव खेलके खिलौनों
(शरीर-संसार)-में ही लग गये ! श्रीजी खिलौनोंमें नहीं लगीं तो उनको प्रतिक्षण वर्धमान
प्रेमकी प्राप्ति हो गयी और जीव खिलौनोंमें लग गये तो उनको जन्म-मरणरूप संसारकी
प्राप्ति हो गयी । ये खिलौने अपने और अपने लिये हैं ही नहीं । ये तो केवल दूसरोंको
सुख पहुँचानेके लिये ही हैं । इनको अपना और अपने लिये मानना बहुत बड़ी भूल है,
जिसका त्याग करना मनुष्यका कर्तव्य है । यह एक ही भूल स्थानभेदसे काम, क्रोध, लोभ,
मोह, इर्षा, द्वेष, दम्भ, पाखण्ड आदि अनेक विकारोंके रूपमें हो जाती है । फिर
भूलें बढ़ती ही रहती हैं । उनका कोई अन्त नहीं आता ।
अपने-आपको भूलनेसे देहाभिमान उत्पन्न हो जाता है
। कर्तव्यको भूलनेसे अकर्तव्य होने लगता है । भगवान्को भूलनेसे नाशवान्के साथ
सम्बन्ध हो जाता है । इस
भूलको मिटानेके लिये तीन योग हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । विवेक-विचारपूर्वक संसारसे मिली हुई वस्तुओंसे अलग हो जाय‒यह
ज्ञानयोग है । उन वस्तुओंको संसारकी सेवामें लगा दे‒यह कर्मयोग है । मनुष्य स्वयं जिसका अंश है, उस भगवान्में लग जाय‒यह भक्तियोग है
। परन्तु जो ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्तियोगमें न लगकर संसारमें
अर्थात् भोग और संग्रहमें लग जाता है, वह जन्म-मरणमें पड़ जाता है । वह जन्म गया
तो मरना बाकी रहता है और मर गया तो जन्मना बाकी रहता है । इस प्रकार वह जन्म-मरणके
चक्रमें घूमता रहता है‒‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि
जननीजठरे शयनम्’ ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याणके तीन सुगम मार्ग’ पुस्तकसे
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