।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७४,बुधवार
                 भगवत्प्राप्तिके लिये  
          भविष्यकी अपेक्षा नहीं



(शेष आगेके ब्लॉगमें)

पापी-से-पापी पुरुषको भी भगवान् मिल सकते हैं (गीता ९ । ३०) । सदन कसाई और डाकुओंको भी भगवान् मिल गये थे । भगवान् तो सर्वदा सर्वत्र विद्यमान हैं, केवल भावकी आवश्यकता है । अन्तःकरणके अशुद्ध होनेपर वैसा भाव नहीं बनता, यह बात ठीक होते हुए भी वस्तुतः साधकके लिये बाधक है । शास्त्रोंमें पतिव्रता स्त्रीकी बड़ी महिमा गायी गयी है कि भगवान् भी उसके वशमें हो जाते हैं । यदि कोई कहे कि हममें पातिव्रत-भाव नहीं बन सकता, तो यह उसकी भूल है । पापी-से-पापी पुरुषोंकी भी स्त्रियाँ पतिव्रता हुई हैं और श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ पुरुषोंकी भी । भगवान् श्रीरामकी पत्नी सीताजी भी पतिव्रता थीं और राक्षसराज रावणकी पत्नी मन्दोदरी भी पतिव्रता थी । ऐसा नहीं कि श्रीरामकी पत्नी तो पतिव्रता हो सकती है, पर रावणकी पत्नी नहीं । पातिव्रत-धर्मका पालन करनेके कारण ही मन्दोदरी तो भगवान् श्रीरामको तत्त्वसे जानती थी, परन्तु रावण नहीं जानता था (द्रष्टव्य‒मानस, लंका १५-१६) ।

वर्तमान युग (कलियुग)-में तो भगवान् सुगमतासे मिलते हैं; क्योंकि अब उनके ग्राहक बहुत कम हैं । ग्राहक तो बहुत कम हों तो माल सस्ता मिलता है; क्योंकि तब बेचनेवालेको गरज होती है । इसलिये ऐसा भाव नहीं रखना चाहिये कि इस घोर कलियुगमें भगवान् इतनी सुगमतासे कैसे मिलेंगे ?

अपना दृढ़ विचार कर लें कि चाहे दुःख आये या सुख, अनुकूलता आये या प्रतिकूलता, हमें तो भगवान्‌को प्राप्त करना ही है । यदि हम पहले अपने अन्तःकरणको शुद्ध करनेमें लग जायँगे तो भगवत्प्राप्तिमें बहुत देर लगेगी । हमारे उद्योग करनेकी अपेक्षा भगवान्‌की अनन्त अपार कृपाशक्ति हमें बहुत शीघ्र शुद्ध कर देगी । बच्चा कीचड़से लिपटा भी हो, यदि माँकी गोदमें चला जाय तो माँ स्वयं ही उसे साफ कर देती है ।

एक राजा सायंकाल महलकी छतपर टहल रहे थे । सहसा उनकी दृष्टि नीचे बाजारमें घूमते हुए एक सन्तपर पड़ी । सन्त अपनी मस्तीमें ऐसे चल रहे थे कि मानो उनकी दृष्टिमें संसार है ही नहीं । राजा अच्छे संस्कारवाले पुरुष थे । उन्होंने अपने आदमियोंको उन सन्तको तत्काल ऊपर ले आनेकी आज्ञा दी । आज्ञा पाते ही राजपुरुषोंने ऊपरसे ही रस्से लटकाकर उन सन्तको (रस्सोंमें फँसाकर) ऊपर खींच लिया । इस कार्यके लिये राजाने उन सन्तसे क्षमा माँगी और कहा कि एक प्रश्नका उत्तर पानेके लिये ही मैंने आपको कष्ट दिया । प्रश्न यह है कि भगवान् शीघ्र कैसे मिलें ? सन्तने कहा‒‘राजन् ! इस बातको तुम जानते ही हो ।’ राजाने पूछा‒‘कैसे ? सन्त बोले‒‘यदि मेरे मनमें तुमसे मिलनेका विचार आता तो कई अड़चनें आती और बहुत देर लगती । पता नहीं मिलना सम्भव भी होता या नहीं । पर जब तुम्हारे मनमें मुझसे मिलनेका विचार आया, तब कितनी देर लगी ? राजन् ! इसी प्रकार यदि भगवान्‌के मनमें हमसे मिलनेका विचार आ जाय तो फिर उनके मिलनेमें देर नहीं लगेगी । राजाने पूछा‒‘भगवान्‌के मनमें हमसे मिलनेका विचार कैसे आ जाय ? सन्त बोले‒‘तुम्हारे मनमें मुझसे मिलनेका विचार कैसे आया ? राजाने कहा‒‘जब मैंने देखा कि आप एक ही धुनमें चले जा रहे हैं और सड़क, बाजार, दूकानें, मकान, मनुष्य आदि किसीकी भी तरफ आपका ध्यान नहीं है, तब मेरे मनमें आपसे मिलनेका विचार आया ।’ सन्त बोले‒‘राजन् ! ऐसे ही तुम एक ही धुनमें भगवान्‌की तरफ लग जाओ, अन्य किसीकी भी तरफ मत देखो, उनके बिना रह न सको, तो भगवान्‌के मनमें तुमसे मिलनेका विचार आ जायगा और वे तुरन्त मिल जायँगे ।’[*]

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे




[*] भगवान् कहते हैं‒

अनन्यचेताः सततं  यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
                                                   (गीता ८ । १४)

‘हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ ।’