Nov
23
प्रश्नोत्तर
(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒गृहस्थाश्रममें
रहते हुए कल्याण हो सकता है क्या ?
स्वामीजी‒भूखेको भोजन मिलता है और भूखा ही भोजनका अधिकारी होता है । जो जिस चीजका जिज्ञासु
होता है, उसको वह चीज मिलती है । विचार करें कि कल्याण किसका होता है
? कल्याण शरीरका नहीं होता, प्रत्युत जीवात्माका होता है । जीवात्मा न ब्रह्मचारी है,
न गृहस्थ है, न वानप्रस्थ है, न संन्यासी है । वह न ब्राह्मण है,
न क्षत्रिय है, न वैश्य है, न शूद्र है । वह न हिन्दू है,
न मुसलमान है, न ईसाई है, न यहूदी है, न पारसी है । जीवात्मा तो परमात्माका
अंश है ।
कल्याण उसका होता है, जो
कल्याण चाहता है । भोजन उसको
भाता है, जो भूखा होता है । आप सच्ची बातपर विचार करो कि क्या ब्राह्मणका
कल्याण हो जायगा ? क्या साधुका कल्याण हो जायगा ?
क्या किसी भाई या बहनका कल्याण हो जायगा ?
कोई ऊँचे कुलमें उत्पन्न हुआ हो तो क्या उसका कल्याण हो जायगा
? किसीके पास पैसे ज्यादा हों तो क्या उसका कल्याण हो जायगा ?
किसीका बल ज्यादा हो तो क्या उसका कल्याण हो जायगा ?
मनमें कल्याणकी इच्छा हुए बिना कल्याण कैसे हो जायगा ?
भूखके बिना भोजन भी नहीं कर सकते तो क्या लगनके बिना परमात्माकी
प्राप्ति हो जायगी ? कोई किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, धर्म आदिका हो, जो हृदयसे परमात्माको चाहता है,
उसको परमात्मा नहीं मिलेंगे तो किसको मिलेंगे ?
चाहनेसे परमात्मा ही मिलते हैं,
संसार नहीं मिलता । परमात्माकी प्राप्ति न ब्राह्मणको होती है,
न साधुको होती है, न पुरुषको होती है,
न स्त्रीको होती है, प्रत्युत ‘भक्त’ को होती है । वर्ण-आश्रमकी मर्यादा
व्यवहारके लिये आवश्यक है । विवाह, भोजन
आदिमें वर्ण, जातिका विचार करना चाहिये; क्योंकि
उसमें शरीरका सम्बन्ध होता है । दूसरे वर्णमें विवाह होगा तो वर्णसंकर पैदा होगा ।
कल्याण स्वयंका होता है;
क्योंकि स्वयं कल्याण चाहता है । मुमुक्षुकी मुक्ति होती है
। जिज्ञासुको तत्त्वज्ञान होता है । इसी तरह जो पाप करता है,
वह नरकोंमें जायगा,
चाहे वह किसी वर्ण-आश्रमका हो । अगर ब्राह्मणका ही कल्याण होगा
तो ‘मनुष्यशरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है’‒यह शास्त्रकी बात कट जायगी ! सब जीव परमात्माके अंश हैं । कोल,
भील, किरात भी परमात्माके अंश हैं । साँप,
बिच्छू भी परमात्माके अंश हैं । परमात्माके
अंशको ही परमात्माकी प्राप्ति होती है । अपनी माँके पास जानेमें सबका अधिकार है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे
|