Feb
02
(गत ब्लॉगसे आगेका)
आश्चर्यकी बात है, आप उनको साथी बनाते हो, जिनके लिये रोना पड़े ! पहले साथी बनाओ, पीछे रोओ ! ऐसा काम करो ही क्यों ? ऐसा साथी बनाओ, जिसके लिये कभी रोना पड़े ही नहीं । जो साथ रहनेवाले नहीं हैं, उनकी सेवा करो, उनको सुख पहुँचाओ । नहीं कर सको तो चुपचाप रहो, उनमें फँसो नहीं । वे नहीं
रहेंगे तो रोना पड़ेगा । उनमें मोह नहीं करो तो क्यों रोना पड़े ?
श्रोता‒भगवान्में प्रेम
होना भजनसे बढ़कर है‒इसका क्या भाव है ?
स्वामीजी‒इसका भाव यह है कि जीव भगवान्का ही है, दूसरे किसीका है ही नहीं । अतः प्रेम होनेसे वह अपने असली ठिकाने पहुँच जायगा
। ज्ञान होनेसे अपने स्वरूपका बोध होता है । स्वरूपका बोध होनेसे अभाव, दुःख मिट जायगा, मुक्ति हो जायगी, पर मिला क्या ? पर प्रेमसे भगवान् मिलेंगे !
श्रोता‒आप कई बार कहते
हैं कि कुछ करना नहीं
है, तो ‘न
करने’ का स्वरूप क्या है
?
स्वामीजी‒जब करनेकी, देखनेकी, सुननेकी, चिन्तन करनेकी मनमें न रहे, इनसे तृप्त हो जाय, तब ‘न करना’ बहुत जल्दी होता है ।
‘न करना’ हरेकको प्राप्त नहीं होता । न संसारका चिन्तन करना है, न आत्माका चिन्तन करना है, न भगवान्का चिन्तन करना है । इसप्रकार ‘चुप’ होते ही परमात्मामें ही स्थिति होती है
। परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है । जहाँ आप हो, वहीं परमात्मा है
।
श्रोता‒मेरा मन भगवान्के भजनमें
लग रहा है, पर माँ मुझे
रोकती है, तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँ
क्या ?
स्वामीजी‒माँको मत छोड़ो । भगवान्में लगे रहो । आप भी
सत्संगमें आओ और माँको भी सत्संगमें लाओ । माँ नहीं आये तो आज्ञा माँगकर सत्संगमें
आओ । छोड़नेसे माँको दुःख होगा । संसारमें सबसे ऊँचा दर्जा
माँका है । माँको दुःख मत दो ।
पहले यह बात थी कि हम मुसाफिरीमे हैं । आज मेरे मनमें
आयी कि हम मुसाफिरीमें हैं ही नहीं, हम तो अपने घरमें बैठे हैं ! भगवान्ने पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार‒ये आठ प्रकारकी
अपनी अपरा प्रकृति बतायी (गीता ७ । ४) ।
इन आठोंके सिवाय और क्या है ? बताओ । अपरा प्रकृति भगवान्का स्वरूप है । अतः हम तो घरमें ही बैठे हैं, मुसाफिरी
कैसे हुई ? अगर घरमें नहीं हैं तो फिर कहाँ हैं आप ? बताओ । गलती यह है कि अपरा प्रकृतिको अपना मानते हैं और भगवान्को अपना नहीं मानते । मुसाफिरी तो तब हो, जब भगवान्से अलग हों । हम
भगवान्से अलग होते नहीं, हो सकते ही नहीं
! हम भगवान्से दूर गये ही नहीं । भगवान्की गोदीमें ही बैठे हैं ! अपरा प्रकृतिको अपना
मान लिया‒इस मान्यताने ही गड़बड़ी की है, और कोई गड़बड़ी नहीं । अपरा प्रकृति केवल सेवाके लिये है । आपके पास जो वस्तु है,
वह संसारकी सेवाके लिये ही है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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