(गत ब्लॉगसे आगेका)
मिली हुई चीज केवल संसारकी सेवाके लिये है । उसको अपनी
नहीं मानो और संसारकी सेवा करो तो कल्याण हो जायगा, मुक्ति हो जायगी ।
जो कुछ देखनेमें, सुननेमें,
समझनेमें आता है, वह सब कुछ भगवान्का है । यह
पहली बात है । उसको अपना न मानकर भगवान्का मानो तो आपका साधन शरू हो गया । उसको अपना मानो तो साधन शुरू नहीं हुआ
। दूसरी एक मार्मिक बात है कि सांसारिक वस्तुएँ हमारे लिये भी नहीं हैं । ये भगवान्की
हैं और भगवान्के लिये हैं । हमारी नहीं हैं और हमारे लिये भी नहीं है‒ये दो बातें मान लो,
फिर सब काम ठीक हो जायगा । मूलमें सब संसारके मालिक भगवान् हैं । भगवान्की
चीजोंको आप अपनी क्यों मानते हो ? राजकीय चीजपर कोई कब्जा करता
है, उसको दण्ड होता है । वे चीजें आपको उपयोग करनेके लिये मिली
हैं । जैसे, यह पण्डाल आपको बैठकर सत्संग करनेके लिये दिया हुआ
है, अपना व्यक्तिगत नहीं है । यह भगवान्का है, हमारा नहीं है ।
श्रोता‒ध्यान भगवान्के मुखारविन्दका करना चाहिये
या चरणोंका करना चाहिये ?
स्वामीजी‒भावके अनुसार अलग-अलग ध्यान होगा । अगर
भगवान्में पुत्रभाव हो तो मुखका ध्यान अपने-आप होगा । अगर दास्यभाव
हो तो चरणोंका ध्यान होगा ही । आपको भगवान्का मुख अच्छा लगता है या चरण अच्छे लगते
हैं ? अगर मुख अच्छा लगे तो पुत्रभाव है । अगर चरण अच्छे लगें
तो दास्यभक्ति है । चरणोंका ध्यान करना सबसे बढ़िया है । चरणोंमें विष्णु भगवान् विराजते
हैं ।
श्रोता‒सब कुछ भगवान्का है और
सब कुछ भगवान् ही है‒ये दो बात है या
एक बात है ? दो बात है
तो इनमें क्या अन्तर है ?
स्वामीजी‒‘सब कुछ भगवान्का है’‒यह पहली सीढ़ी है । दूसरी
सीढ़ी है‒‘सब कुछ भगवान् ही हैं’ । इसके आगे है‒एक भगवान्के सिवाय कुछ हुआ ही नहीं । सबसे पहले यह मान लेना चाहिये कि सब
कुछ भगवान्का है, भगवान् सबके मालिक हैं ।
श्रोता‒स्मृतिका क्या स्वरूप है ?
स्वामीजी‒स्मृतिका स्वरूप है‒भूल मिटना
। भगवान्को भूल गये । अरे ! सब कुछ भगवान् ही हैं‒यह स्मृति
है ।
श्रोता‒प्रेम और स्मृतिमें क्या सम्बन्ध
है ?
स्वामीजी‒स्मृतिके बाद प्रेम हो जाता है । भगवान्
मेरे हैं; भगवान्के सिवाय और
कोई मेरा नहीं है‒यह स्मृति हो गयी । इसके बाद भगवान्में प्रेम
हो जाता है ।
श्रोता‒मेरा नाम-स्मरणमें बड़ा मन लगता है, लेकिन लीला-चिन्तन बड़ा कठिन पड़ता है, क्या करूँ ?
स्वामीजी‒कोई हर्ज नहीं, नामजप ही करो । जिसमें
आपका मन लगे, वह साधन बढ़िया होता है । जो स्वतः होता है,
वह बढ़िया होता है । बलपूर्वक किया हुआ साधन
बढ़िया नहीं होता ।
श्रोता‒भण्डारेमें भोजन करते हैं तो
भण्डारा करवानेवालेका पाप हमें लगता
है क्या ?
स्वामीजी‒भण्डारा बढ़िया नहीं है; क्योंकि सकामभावसे
करते हैं । लोग मृत्यु-समयमें निकाल देते हैं, खराब भावसे निकाल देते हैं, इसलिये वह अन्न अच्छा नहीं
है । वह अन्न बाधा देता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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