।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७५, मंगलवार
                    अनन्तकी ओर     



श्रोता‒अपना स्वरूप निर्विकार है, तो विकारोंका प्रभाव अपने निर्विकार स्वरूपपर कहाँतक पड़ता है ?

स्वामीजी‒जहाँतक अन्तःकरण अशुद्ध रहता है, वहाँतक । एक बहिःकरण (दस इन्द्रियाँ) है, एक अन्तःकरण (मन, बुद्धि तथा अहंकार) है । जबतक अन्तःकरणमें अशुद्धि रहती है, तबतक उसमें विकार रहते हैं । ज्यों-ज्यों अन्तःकरण शुद्ध होता है, त्यों-त्यों उसमें निर्विकारता आती है, यह सब साधकोंका अनुभव है ।

काम, क्रोध, लोभ आदि विकार भी सबमें बराबर नहीं होते । किसीमें अधिक होते हैं, किसीमें कम । जो साधन नहीं करते, उनमें भी विकार बराबर नहीं होते । एक साधन नहीं करता, पर उसमें भी पूर्वजन्मके साधनके कारण विकार कम हो सकते हैं, और एक साधन करता है, पर उसमें विकार अधिक हो सकते हैं । परन्तु साधन करनेसे, सत्संग करनेसे फर्क जरूर पड़ता है‒इसमें मुझे बिलकुल सन्देह नहीं है । जैसे भोजन करनेसे भूख शान्त होती है, जल पीनेसे प्यास शान्त होती है‒यह सबका अनुभव है, ऐसे ही सत्संग करनेसे विकार कम होते हैं‒यह सबका अनुभव है ।

श्रोता‒आप भगवान्‌को याद करनेकी बात कहते हैं तो कम-से-कम हमें भगवान्‌के दर्शन करा दीजिये । बिना देखे भगवान्‌को कैसे याद करें ?

स्वामीजी‒आपकी बात तो ठीक है, पर खास बात यह है कि हमारेमें वह शक्ति नहीं है कि भगवान्‌के दर्शन करा दें । आप चाहो तो भगवान्‌के दर्शन हो सकते हैं । भगवान् ऐसी चीज नहीं है, जो किसीके कहनेसे आ जायँ ।

आपने आजतक जैसा सुना है, जैसा पढ़ा है, जैसा आपके विचारमें आया है कि भगवान् ऐसे हैं, उसको याद रखो । उसको भगवान् अपना मान लेंगे । भगवान् सबमें हैं । आप जो भी कल्पना करेंगे, भगवान् उसके अनुरूप भी हैं, और स्वयं भी हैं । वास्तवमें यह सब स्वरूप भगवान्‌का ही है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । जब सब कुछ वासुदेव ही है तो फिर जो आप याद करते हो, वह वासुदेव नहीं है क्या ? भगवान् कहते हैं‒

यो मां पश्यति सर्वत्र  सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
                                               (गीता ६ । ३०)

जो भक्त सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।’


भक्तोंके भावको भगवान् जानते हैं और भगवान्‌के भावको भक्त जानते हैं । भगवान् कैसे हैं, कहाँ रहते हैं, आदि बातोंको जाननेकी कोई जरूरत नहीं । वे हैं’, बस, इतना मान लो । उनको है’-रूपसे मान लो । वह है’-रूपसे सबमें हैं । ईंट, चूना, पत्थर, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि सबमें जो है’ दीखता है, वह भगवान्‌का वाचक है ।