May
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मनुष्यमें जो सेवा करनेकी,
सबको सुख पहुँचानेकी शक्ति है,
वह देवताओंमें भी नहीं है । वह मनुष्योंको भी तृप्त करता है
और भगवान्को भी तृप्त करता है, उनकी भी भूख मिटाता है ! भगवान् प्रेमभावके भूखे हैं । इसलिये
भगवान्के दरबारमें ऊँचे-से-ऊँचे मनुष्य हैं ! मनुष्यमें यह शक्ति भी भगवान्की दी
हुई है, उसकी खुदकी नहीं है । मनुष्यको शक्ति देकर भगवान् खुद छोटे बन
जाते हैं‒‘मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’ ! परन्तु भक्त अपनेको बड़ा नहीं मानता । भक्त भगवान्का भक्त होता
है और भगवान् भक्तके भक्त होते हैं ! भगवान् ‘भक्तभक्तिमान्’ हैं‒‘एवं स्वभक्तयो राजन् भगवान् भक्तभक्तिमान्’ (श्रीमद्भा॰ १० । ८६ । ५९) । हरेक आदमी
दूसरेको चेला बनाता है, पर भगवान् गुरु बनाते हैं ! यह भगवान्की
उदारता है कि दूसरेको सब कुछ देकर भी उसे अपने अधीन नहीं बनाते, प्रत्युत
मालिक बनाते हैं ।
भगवान् कहते हैं कि भक्त ऊँचे हैं,
भक्तोंकी भक्ति करो,
उनकी शरणमें जाओ और भक्त कहते हैं कि भगवान्की शरणमें जाओ,
पर भीतरसे दोनों एक हैं ! यह ठगाईकी रीति है ! भीतरसे दोनों
एक हैं, पर बाहरसे दूकानें दो हैं । वह कहता है कि उस दूकानमें जाओ,
वह दूकान अच्छी है और यह कहता है कि उस दूकानमें जाओ,
वह दूकान अच्छी है ! भीतरसे दोनों दूकानें अपनी हैं !
जैसे माँको बच्चा प्यारा होता है,
ऐसे ही भगवान्को भक्त बड़ा प्यारा होता है । भक्तको देखकर भगवान्
प्रसन्न होते हैं ! वे भक्तको छिप-छिपकर देखते हैं ‒‘प्रभु
देखैं तरू ओट लुकाई’ (मानस,
अरण्य॰ १० । ७) ! दुनियाको आनन्द भगवान् देते हैं, पर
भगवान्को आनन्द भक्त देता है !
परमात्माकी प्राप्ति चाहनेवालोंके लिये बहुत ही सुगम मार्ग है
कि हम जो भी काम कर रहे हैं, भगवान्का काम कर रहे हैं । भगवान् कहते हैं‒
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय
तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
(गीता
९ । २७-२८)
‘हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है,
जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे । इस प्रकार मेरे अर्पण करनेसे कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित)
और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा । ऐसे अपने-सहित सब
कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे ही प्राप्त हो जायगा ।’
भगवान्का काम करते ही आपकी अशुद्धि चली जायगी और शुद्धि आ जायगी
। आप स्वतः-स्वाभाविक पवित्र हो जाओगे । आपके द्वारा कोई निषिद्ध काम नहीं होगा । आपका
हरेक काम भजन हो जायगा । मैं भगवान्का हूँ और भगवान्का
काम करता हूँ‒यह ध्यानसे भी ऊँची चीज है ! कारण कि यह करणनिरपेक्ष है । ध्यानमें
मन लगाते हैं, इसलिये वह करणसापेक्ष है । करणसापेक्षवाला साधक योगभ्रष्ट हो
सकता है, पर करणनिरपेक्षवाला साधक योगभ्रष्ट नहीं हो सकता । हमारा मन भगवान्में लगा तो हमारे और भगवान्के बीचमें मन आ गया
! हमारा भगवान्के साथ सीधा सम्बन्ध हो तो यह करणनिरपेक्ष है,
पर बीचमें मन-बुद्धि आ जायँगे तो यह करणसापेक्ष हो जायगा ।
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