।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७५, गुरुवार
सन्त और उनकी सेवा




जैसे पारस और लोहेको टकराते रहो तो पहले लोहेपर लगी हुई मिट्टी, जंग आदि व्यवधान दूर होंगे और बादमें स्पर्श होनेपर लौह स्वर्ण बन जायगा । बस, इसी प्रकार बार-बारके संगसे पापरूपी मल (मिट्टी, जंग आदि) दूर हो जायगा और अन्तमें कल्याण हो जायगा । ऋषिकेश-(उत्तराखण्ड) की ओर देखा होगा, गंगाजीमें गोल-गोल पत्थर मिलते हैं । पहाड़ोंकी चट्टानके टेढ़े-मेढ़े पत्थर पानीके प्रवाहमें लुढ़कते-लुढ़कते गोल हो गये; उन्होंने कोई उद्योग नहीं किया और न उनमें गोल होनेकी इच्छा ही थी । पर प्रवाहमें पड़े रहे तो गोल और चिकने हो गये । इसी प्रकार सन्त-महात्माओंकी शरणमें पड़ा रहे तो अन्तमें कल्याण हो ही जाता है ।

श्रद्धाके दो भेद हैं‒(१) स्थायी और (२) अस्थायी । स्थायी श्रद्धा वहाँ होती है, जिसमें कभी कमी नहीं हो सकती । पर अस्थायी श्रद्धा बाजारू भावकी तरह घटती-बढ़ती रहती है । स्थायीमें बढ़नेकी गुंजाइश तो है; पर वह घट कभी नहीं सकती । अस्थायी श्रद्धा भी बढ़ते-बढ़ते अन्तमें स्थायी श्रद्धामें परिणत हो सकती है; क्योंकि अस्थायी श्रद्धामें जो वास्तविक श्रद्धाका अंश रहता है, वह स्थायी श्रद्धामें शामिल होता रहता है । सन्तोंका बार-बार संग करनेसे उनके गुण-प्रभावका ज्ञान होनेपर तथा उनकी आज्ञापालन करनेसे उनके प्रति श्रद्धा-भावका विकास होता रहता है और अन्तमें स्थायी श्रद्धाका उदय हो जाता है ।

सन्त सर्वदा रहते हैं । ऐसा कोई भी समय नहीं होता, जब पृथ्वी-मण्डलमें यति, सती, धर्मात्मा और सन्त पुरुष न हों । आज भी सन्त पुरुष मिल सकते हैं और ऐसे सन्त मिल सकते हैं, जो हमारा उद्धार कर सकते हैं । पर हमें मिलें कैसे ? हममें उनके मिलनेकी लालसा ही नहीं । अतएव यह लालसा बढ़ानी चाहिये कि हमें सन्त, सच्चे सन्त मिलें ।

सन्तोंके जीवनकालमें यदि कोई उनसे लाभ लेनेवाला न हो, तो भी उनके सिद्धान्त वायुमण्डलमें स्थिर हो जाते हैं, जिससे भविष्यमें यदि कोई लाभ लेनेवाला उत्पन्न होता है तो उनसे लाभ उठा लेता है ।

ऐसी बात नहीं कि सभी सन्त एक-से हों । उनकी वास्तविक स्थितिमें भेद न रहनेपर भी वर्ण, आश्रम, संग, स्वाध्याय, प्रकृति, साधनकी प्रणाली आदिका साधनकालमें अन्तर रहनेके कारण सिद्धावस्थामें भी उनकी मान्यता, आचरण और उपदेश-प्रणालीमें अन्तर पाया जाता है ।

सन्तलोग किसीको अपना चेला-चेली नहीं बनाते । पर यदि कोई अपनेको उनका अनुयायी मान ले तो इसमें उनको कौन रोक सकता है ? जो व्यक्ति ईश्वरपर भरोसा करके सच्चे हृदयसे अपने-आपको किसी सन्तका अनुयायी मान लेता है, उसका भार भगवान्‌पर आ जाता है । पर मान्यता होनी चाहिये असली । मतलब यह है कि साधकके मनमें इच्छा हो केवल भगवत्-प्राप्तिकी ही तथा श्रद्धा हो सिद्धान्तको लेकर ही, तो फिर व्यक्तिपर आग्रह न होने तथा इच्छा भौतिक न होनेके कारण वह कहीं भी ठगा नहीं सकता । इस प्रकार यदि मान्यता असली हुई और भगवान्‌ देखेंगे कि इस व्यक्तिका कल्याण इस सन्तमें श्रद्धा रहनेसे हो सकता है, तब तो वे उसकी श्रद्धा उस सन्तमें दृढ़ कर देंगे, किन्तु यदि वह सन्त न हो और उसमें श्रद्धा रहनेसे उस साधकको हानि होनेकी सम्भावना हो तो भगवान्‌ उसकी श्रद्धा और कहीं लगा देंगे; क्योंकि साधकके न जाननेपर भी भगवान्‌ तो साधक और सन्त दोनोंको ही जानते हैं और अनजानमें भी रक्षा करना भगवान्‌का सर्वभूतसुहृद्-स्वभाव है ही । अतः दोनों अवस्थाओंमें उसका उद्धार होना निश्चित है ही; क्योंकि ‘मेरा कल्याण भगवान्‌ अवश्य करेंगे’ ऐसा उसका भगवान्‌पर दृढ़ भरोसा रहता है । एकलव्यके भावसे उसको सफलता मिल गयी । वास्तवमें श्रद्धा-भक्ति असली चीज है, नेगचार(रस्म, विधि)-से भगवान्‌ नहीं मिल सकते । सन्तके विषयमें भी यही बात है । नेगचार करके चाहे हम किसीको गुरु न बनायें, पर श्रद्धा-भक्तिसे सन्तको गुरु मानकर उनकी सेवा, आज्ञा-पालन और संग करें, लाभ हो ही जायगा ।


नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!