।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७५, बुधवार
                 दुर्गतिसे बचो




प्रश्न‒कौन-से मनुष्य मरनेके बाद भूत-प्रेत बनते हैं ?

उत्तर‒जिन मनुष्योंका खान-पान अशुद्ध होता है, जिनके आचरण खराब होते हैं, जो दुर्गुण-दुराचारोंमे लगे रहते हैं, जिनका दूसरोंको दुःख देनेका स्वभाव है, जो केवल अपनी ही जिद रखते हैं, ऐसे मनुष्य मरनेके बाद कूर स्वभाववाले भूत-प्रेत बनते हैं । ये जिनमें प्रविष्ट होते हैं, उनको बहुत दुःख देते हैं और मन्त्र आदिसे भी जल्दी नहीं निकलते ।

जिन मनुष्योंका स्वभाव सौम्य है, दूसरोंको दुःख देनेका नहीं है; परन्तु सांसारिक वस्तु, स्त्री, पुत्र, धन, जमीन आदिमें जिनकी ममता-आसक्ति रहती है, ऐसे मनुष्य मरनेके बाद सौम्य स्वभाववाले भूत-प्रेत बनते हैं । ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते हैं तो उसको दुःख नहीं देते और अपनी गतिका उपाय भी बता देते हैं ।

जिनको विद्या आदिका बहुत अभिमान, मद होता है; उस अभिमानके कारण जो दूसरोंको नीचा दिखाते हैं, दूसरोंका अपमान-तिरस्कार करते हैं, दूसरोंको कुछ भी नहीं समझते, ऐसे मनुष्य मरकर ‘ब्रह्मराक्षस’ (जिन्न) बनते हैं । ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते हैं, किसीको पकड़ लेते हैं तो बिना अपनी इच्छाके उसको छोड़ते नहीं । इनपर कोई तन्त्र-मन्त्र नहीं चलता । दूसरा कोई इनपर मन्त्रोंका प्रयोग करता है तो उन मन्त्रोंको ये स्वयं बोल देते हैं ।

एक सच्ची घटना है । दक्षिणमें मोरोजी पन्त नामक एक बहुत बड़े विद्वान् थे । उनको विद्याका बहुत अभिमान था । वे अपने समान किसीको विद्वान् मानते ही नहीं थे और सबको नीचा दिखाते थे । एक दिनकी बात है, दोपहरके समय वे अपने घरसे स्नान करनेके लिये नदीपर जा रहे थे । मार्गमें एक पेड़पर दो ब्रह्मराक्षस बैठे हुए थे । वे आपसमें बातचीत कर रहे थे । एक ब्रह्मराक्षस बोला‒हम दोनों तो इस पेड़की दो डालियोंपर बैठे हैं, पर यह तीसरी डाली खाली है; इसपर कौन आयेगा बैठनेके लिये ? दूसरा ब्रह्मराक्षस बोला‒यह जो नीचेसे जा रहा है न ? यह आकर यहाँ बैठेगा; क्योंकि इसको अपनी विद्वत्ताका बहुत अभिमान है । उन दोनोंके संवादको मोरोजी पन्तने सुना तो वे वहीं रुक गये और विचार करने लगे कि अरे ! विद्याके अभिमानके कारण मेरेको ब्रह्मराक्षस बनना पड़ेगा, प्रेतयोनियोंमे जाना पड़ेगा ! अपनी दुर्गतिसे वे घबरा गये और मन-ही-मन सन्त ज्ञानेश्वरजीके शरणमें गये कि मैं आपके शरणमें हूँ, आपके सिवाय मेरेको इस दुर्गतिसे बचानेवाला कोई नहीं है । ऐसा विचार करके वे वहींसे आलन्दीके लिये चल पड़े, जहाँ संत ज्ञानेश्वरजी जीवित समाधि ले चुके थे । फिर वे जीवनभर वहीं रहे, घर आये ही नहीं । सन्तकी शरणमें जानेसे उनका विद्याका अभिमान चला गया और सन्त-कृपासे वे भी सन्त बन गये !