Sep
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भागवतोक्त हंसगीतामें भगवान् कहते
हैं‒
गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रजाः
।
जीवस्य देह उभयं गुणाश्चेतो मदात्मनः ॥
गुणेषु चाविशच्चित्तमभीक्ष्णं गुणसेवया ।
गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्रूप उभयं त्यजेत् ॥
(११ । १३ । २५-२६)
‘यह चित्त विषयोंका चिन्तन
करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्तमें प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य है, तथापि विषय और चित्त‒ये दोनों ही मेरे
स्वरूपभूत जीवके देह (उपाधि) हैं अर्थात् आत्माका चित्त और विषयके साथ कोई सम्बन्ध
ही नहीं है ।’
‘इसलिये बार-बार विषयोंका
सेवन करते रहनेसे जो चित्त विषयोंमें आसक्त हो गया है और विषय भी चित्तमें
प्रविष्ट हो गये हैं, इन दोनोंको अपने वास्तविक स्वरूपसे अभिन्न मुझ परमात्मामें
स्थित होकर त्याग देना चाहिये ।’
ऐसी ही बात श्रीरामचरितमानसमें भी आयी
है‒
सुनहु तात माया
कृत गुन अरु
दोष अनेक ।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक
॥
(७ । ४१)
प्रश्न‒क्या परमात्माका सगुण-साकार रूप भी करणनिरपेक्ष है ?
उत्तर‒हाँ, परमात्माका सगुण रूप भी वास्तवमें
निर्गुण होनेसे करणनिरपेक्ष (करणरहित) ही है[1] । परमात्माको चाहे निर्गुण कहें, चाहे सगुण कहें, वे सत्त्व-रज-तम तीनों गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं । वे सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये गुणोंको स्वीकार करते हैं, पर ऐसा करनेपर भी वे गुणोंसे सर्वथा अतीत ही रहते हैं, गुणोंसे बँधते नहीं[2] । अतः परमात्माके ब्रह्मा, विष्णु और महेशरूप भी तत्त्वसे निर्गुण ही हैं ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं
गुणभोकृ च ॥
(गीता १३ । १४)
‘वे परमात्मा सम्पूर्ण
इन्द्रियाँसे रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको प्रकाशित करनेवाले हैं; आसक्तिरहित हैं और सम्पूर्ण संसारका
भरण-पोषण करनेवाले हैं तथा गुणोंसे रहित हैं और सम्पूर्ण गुणोंके भोक्ता हैं ।’
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
(गीता ७ । १३)
‘इन तीनों गुणरूप भावोंसे
मोहित यह सब जगत् इन गुणोंसे पर अविनाशी मेरेको नहीं जानता ।’
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