।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७५, शनिवार
पंचमीश्राद्ध
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



असंप्रज्ञात-समाधि दो तरहकी होती है‒सबीज और निर्बीज । जब संसारकी सूक्ष्म वासना रहती है, तब सबीज समाधि होती है । सबीज समाधिमें अहम् (मैं-पन) के साथ सम्बन्ध रहता है । अहम्‌के सम्बन्धसे दो अवस्थाएँ होती हैं‒समाधि और व्युत्थान । सूक्ष्म वासनाके कारण इस सबीज समाधिमें अनेक प्रकारकी सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं । ये सिद्धियाँ सांसारिक दृष्टिसे तो ऐश्वर्य हैं, पर परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें विघ्न हैं[1] । जब योगी इन सिद्धियोंमें न फँसकर इनसे उपराम (वासनारहित) हो जाता है, तब निर्बीज समाधि होती है । निर्बीज समाधिमें अहम्‌से, कारणशरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और योगी अपने सहज स्वरूपमें स्थित हो जाता है,[2]  जिससे फिर कभी व्युत्थान नहीं होता । इसको सहज समाधि, सहजावस्था अथवा गुणातीत-अवस्था भी कहते हैं ।

यद्यपि करणसापेक्ष साधनमें करण (क्रिया) की प्रधानता रहती है तथापि साधकका लक्ष्य परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेसे परिणाममें उसका करणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और उसको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है ।

करणनिरपेक्ष साधन‒

करणनिरपेक्ष साधन गीताकी एक विलक्षण देन है, जिसमें मनुष्यमात्रका अधिकार है । इस साधनमें सत्-असत्‌के विवेककी प्रधानता है । विवेक अनादि और स्वतःसिद्ध है[3] । यह बुद्धिमें प्रकाशित होता है, पर बुद्धिका गुण नहीं है । यद्यपि सत्-असत्‌का विवेक सभी साधनोंमें रहता है तथापि करण-निरपेक्ष साधनमें साधक आरम्भसे ही इस विवेकको महत्त्व देता है, जिससे यह विवेक स्वयं उसका मार्गदर्शक हो जाता है । विवेकको महत्त्व देनेसे उसमें जडकी दासता अर्थात् क्रिया और पदार्थका आश्रय नहीं रहता, प्रत्युत उसकी निरपेक्षता रहती है ।



[1] ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः । (योगदर्शन ३ । ३७)

[2] यत्रोपरमते   चित्तं     निरुद्धं   योगसेवया ।
    यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
                                                   (गीता ६ । २०)

‘योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपमें अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है ।’

[3] गीतामें आया है‒

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि  (१३ । ११)

‘प्रकृति और पुरुष‒दोनोंको ही तुम अनादि समझो ।’ अतः जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं, ऐसे ही इन दोनोंका भेद (विवेक) भी अनादि है ।