पारमार्थिक उन्नतिमें त्याग ही मुख्य
है । हिरण्यकशिपु, रावण आदि असुरों-राक्षसोंमें भी तपस्या
आदि नियम (विधि) तो मिलते हैं, पर त्याग (निषेध) नहीं मिलता । त्याग केवल परमात्मप्राप्ति चाहनेवालोंमें ही मिलता है । इसलिये
नियमोंके पालनकी अपेक्षा अहिंसादि यमोंके पालनको श्रेष्ठ बताया गया है‒
यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान् मत्परः
क्वचित् ।
(श्रीमद्भा॰ ११ । १० । ५)
करणनिरपेक्ष साधनमें करणोंका त्याग
(सम्बन्ध-विच्छेद) है । करणसापेक्ष साधनमें भी अन्तमें करणोंका त्याग होनेसे ही तत्त्वप्राप्ति
होती है । त्याग करण (जड) का ही होता है, तत्त्वका नहीं । कारण कि त्याग उसीका होता है, जो स्वतः हमारा त्याग कर रहा है अर्थात् जिससे हमारी एकात्मता
नहीं है । तात्पर्य है कि नित्यप्राप्तकी ही प्राप्ति होती है और अप्राप्तका ही निषेध
होता है । ‘है’ की ही प्राप्ति होती है और ‘नहीं’ की ही निवृत्ति होती है । ‘है’ सदा स्वतः प्राप्त है ही और ‘नहीं’ सदा स्वतः निवृत्त है ही !
‘परमात्मतत्त्व है’‒ऐसा मानना भी वास्तवमें ‘संसार नहीं है’‒इस प्रकार संसारका निषेध करनेके लिये ही है । इसी तरह
‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं’‒ इसका तात्पर्य भी वास्तवमें ‘मैं संसारका
नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है’‒इस प्रकार संसारका निषेध करनेमें ही है । यह भक्तिकी विशेषता
है कि अनन्यभावपूर्वक ‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं’‒इस प्रकार विधिमुखसे माने हुए साधनको
भी भगवान् कृपा करके सिद्ध कर देते हैं[1] अर्थात् भक्तका अनन्यभाव पूर्ण कर देते
हैं, अभावरूप संसारका सदाके लिये अभाव कर
देते हैं । तात्पर्य है कि भक्त अहम्को बदलता है और भगवान् उसके अहम्को मिटा देते हैं[2] ।
जबतक निषेध नहीं होता, तबतक विधिकी सिद्धि नहीं होती । मीराबाईने कहा है‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ तो इसमें ‘दूसरो न कोई’‒यह निषेध है । इस निषेधसे ऐसी सिद्धि हुई कि उनका शरीर
भी चिन्मय होकर भगवान्के विग्रहमें लीन हो गया ! कारण कि जडताकी निवृत्ति होनेपर चिन्मयता
ही शेष रहती है । ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’‒ऐसा तो बहुत-से
मनुष्य मानते हैं पर इससे भगवान्की प्राप्ति नहीं हो जाती । अगर इसके साथ ‘दूसरो न कोई’‒ऐसा भाव नहीं होगा तो संसारके अन्य सम्बन्धोंकी
तरह भगवान्का भी एक और नया सम्बन्ध हो जायगा ! अगर ‘मेरा कोई नहीं है’‒इस तरह सर्वथा निषेध हो जाय तो बोध हो जायगा । बोध होते
ही नित्यप्राप्तकी प्राप्ति हो जायगी । कारण कि जबतक दूसरी सत्ताकी मान्यता है, तभीतक विवेक है । दूसरी सत्ताकी मान्यता न रहे तो वह तत्त्वबोध
ही है ।
[1] अन्यके निषेधका उद्देश्य होनेसे ही
‘अनन्यभाव’ होता है । अतः ‘मैं भगवान्का हूँ और
भगवान् मेरे हैं’‒इस विधिमें भी (अनन्यभाव होनेके कारण)
अन्यके निषेधकी ही मुख्यता है ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो
ज्ञानदीपिते भास्वता ॥
(गीता १० । ११)
‘उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये हि उनके
स्वरूप (होनेपन) में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप
दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ ।’
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