।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७५, बुधवार
नवमीश्राद्ध
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



शरीर पहले भी अव्यक्त था और बादमें भी अव्यक्त हो जायगा, केवल बीचमें ही व्यक्त दीखता है । परन्तु शरीरी व्यक्त-अव्यक्त भावसे रहित है । वास्तवमें शब्दोंके द्वारा इस शरीरीका वर्णन नहीं हो सकता । जैसे सांसारिक वस्तुएँ देखने, कहने, सुनने और जाननेमें आती हैं, ऐसे यह शरीरी देखने, कहने, सुनने और जाननेमें नहीं आता । कारण कि यह इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिका विषय नहीं है । जानने, बोलने, सुनने आदिकी शक्तियाँ संसारमें ही काम करती हैं । शरीरीको तो स्वयंसे ही जाना जा सकता है; क्योंकि यह करणनिरपेक्ष तत्त्व है (२ । २८-२१) ।

इस प्रकार शरीरीके अविनाशीपनको जो जान लेता है, उसमें शोक, चिन्ता, भय, उद्वेग आदि विकार नहीं होते । अगर उसमें ये विकार होते हैं तो वास्तवमें उसने शरीरीको जाना नहीं है । तात्पर्य है कि असत्‌की सत्ता नहीं है और सत्‌का अभाव नहीं है‒इस बातको केवल सीखना नहीं है, प्रत्युत इसका अनुभव करना है । शोक केवल सीखनेसे नहीं मिटता, प्रत्युत अनुभव करनेसे मिटता है । अनुभव होनेसे शोक टिक सकता ही नहीं (२ । ३०) ।[1]

इस प्रकार शरीर और शरीरीके भेदको समझना और समझकर स्वीकार करना अपने विवेकका आदर है । विवेकमें सत् और असत् दोनों रहते हैं । विवेकका आदर करनेसे सत्‌का आदर और असत्‌का निरादर स्वतः हो जाता है । असत्‌का निरादर होनेसे साधक असत्‌से ऊँचा उठ जाता है और स्वतःप्राप्त सत्-तत्त्वको प्राप्त कर लेता है ।

सत् अपना स्वरूप है और असत् प्रकृतिका स्वरूप है । जब साधक अपने विवेकका आदर करता है अर्थात् विवेकको महत्त्व देता है, तब उसके साधनमें सत् (स्वयं) की प्रधानता होती है और जब वह अपने विवेकका आदर नहीं करता, तब उसके साधनमें असत् (इन्द्रियाँ- मन-बुद्धि) की प्रधानता होती है ।



[1] गीतामें भगवान्‌ने उपदेशके आरम्भमें मध्यमें और अन्तमें-तीनों ही जगह शोक-चिन्ता न करनेकी बात कही है । इसका तात्पर्य यह है कि सुख-दुःखमें बाहरके पदार्थ, परिस्थिति आदि कारण नहीं हैं । जिसके भीतर शोक-चिन्ता नहीं है, वही वास्तवमें सुखी है और जिसके भीतर शोक-चिन्ता है, वही वास्तवमें दुःखी है । देखनेमें भी आता है कि पासमें अत्यधिक धन आदि पदार्थ होनेपर भी धनी व्यक्ति दुःखी रहते हैं और पासमें धन आदि पदार्थोंका अभाव होनेपर भी तत्त्वज्ञ सन्त-महात्मा सुखी रहते हैं । इसीलिये धनी व्यक्ति तो सुख-शान्तिके लिये सन्त-महात्माओंके पास जाते हैं, पर सन्त-महात्मा सुख-शान्तिके लिये धनी व्यक्तिके पास नहीं जाते । परन्तु आज लोग भीतरकी शान्तिका आदर न करके बाहरकी वस्तुओं (धन आदि) का ही आदर करते हैं, उनका ही संग्रह करते हैं और बाहरके सुखको ही सुख मानकर उसके लिये नसबन्दी, गर्भपात‒जैसे महापाप करते हैं ! अगर वे बाहरके सुखका आदर न करके भीतरके सुख-शान्तिका आदर करें तो सब-के-सब जीवन्मुक्त हो जायँ, सदाके लिये सुखी हो जायँ !