।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण कदाशी, वि.सं.–२०७५, शुक्रवार
इन्दिरा एकादशी-व्रत (सबका)
                     एकादशीश्राद्ध
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



भगवान् कहते हैं‒

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
एवंरूपः शक्य अहंनृलोके   द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥
                                                   (गीता ११ । ४८)

‘हे कुरुप्रवीर ! मनुष्यलोकमें इस प्रकारके विश्वरूपवाला मैं न वेदोंके पढ़नेसे, न यज्ञोंके अनुष्ठानसे, न दानसे, न उग्र तपोसे और न मात्र क्रियाओंसे तेरे (कृपापात्रके) सिवाय और किसीके द्वारा देखा जाना शक्य हूँ ।’

नाहं वेदैर्न तपसा   न  दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥
                                           (गीता ११ । ५३)

‘जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकारका मैं न तो वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ ।’

जब साधक इन तपस्या, यज्ञ, दान आदिसे ऊँचा उठ जाता है, तब उसको परमात्माकी प्राप्ति होती है‒

          वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
          दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
          अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
          योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥
                                                     (गीता ८ । २८)

‘योगी इसको जानकर वेदोंमें, यज्ञोंमें, तपोमें तथा दानमें जो-जो पुण्यफल कहे गये हैं उन सभी पुण्यफलोंका अतिक्रमण कर जाता है और आदिस्थान परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।’

तपस्या आदि करके जब मनुष्य हार जाता है, उसमें अपने बलका अभिमान नहीं रहता, तब परमात्माकी प्राप्ति होती है । तात्पर्य है कि जिस बलका अभिमान परमात्मप्राप्तिमें बाधक है, वह बल जब तपस्यासे खर्च हो जाता है, जल जाता है, तब परमात्माकी कृपासे उनकी प्राप्ति होती है । अतः परमात्मप्राप्तिमें अपने बल, बुद्धि, योग्यता, विद्वत्ता आदिका अभिमान ही बाधक है‒

संसृत   मूल     सूलप्रद   नाना ।
सकल सोक दायक अभिमाना ॥
                              (मानस ७ । ७४ । ६)

ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च
                                              (नारदभक्तिसूत्र २७)


‘ईश्वरका भी अभिमानसे द्वेषभाव और दैन्यसे प्रियभाव है ।’