।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल सप्तमी, वि.सं.–२०७५, बुधवार
कामनाजिज्ञासा और लालसा



मनुष्यशरीर मिल गया तो परमात्मप्राप्तिका, अपना कल्याण करनेका अधिकार मिल गया । कल्याणकी प्राप्तिमें केवल जिज्ञासा या लालसा मुख्य है । अपनी जिज्ञासा अथवा लालसा होगी तो कल्याणकी सब सामग्री मिल जायगी । सत्संग भी मिल जायगा, गुरु भी मिल जायगा, अच्छे सन्त-महात्मा भी मिल जायँगे, अच्छे ग्रन्थ भी मिल जायँगे । कहाँ मिलेंगे, कैसे मिलेंगे‒इसका पता नहीं, पर सच्ची जिज्ञासा या लालसा होगी तो जरूर मिलेंगे । आप कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग, जिस योगमार्गपर चलना चाहते हैं, उस मार्गकी सामग्री देनेके लिये भगवान् तैयार हैं । परन्तु आप चलना ही नहीं चाहें तो भगवान् क्या करें ? आपके ऊपर कोई टैक्स नहीं, कोई जिम्मेवारी नहीं, केवल आपकी लालसा होनी चाहिये ।

कल्याणकी सच्ची लालसावाला साधक बिना कल्याण हुए कहीं टिक नहीं सकेगा । गुरु मिल गया, पर कल्याण नहीं हुआ तो वहाँ नहीं टिकेगा । साधु बनेगा तो वहाँ नहीं टिकेगा । गृहस्थ बनेगा तो वहाँ नहीं टिकेगा । किसी सम्प्रदायमें गया तो वहाँ नहीं टिकेगा । भूखे आदमीको जबतक अन्न नहीं मिलेगा, तबतक वह कैसे टिकेगा ? जिसमें कल्याणकी अभिलाषा है, वह कहीं भी ठहरेगा नहीं । ठहरना उसके हाथकी बात नहीं है । जहाँ उसकी लालसा पूरी होगी, वहीं ठहरेगा ।

सत्संग बड़े भाग्यसे मिलता है‒बड़े भाग पाइब सतसंगा’ (मानस, उत्तर ३३ । ४) । परन्तु जिस ग्रन्थमें भाग्यकी बात लिखी है, उसी ग्रन्थमें यह भी लिखा है‒जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥ (मानस, बाल २५९ । ३) । सच्ची लालसावालेको सच्चा सत्संग अवश्य मिलेगा । जिसके भीतर कल्याणकी सच्ची लालसा है, उसको कल्याणका मौका मिलेगा‒इसमें कोई सन्देह नहीं है । इसमें भाग्यका काम है ही नहीं ।

सांसारिक धनकी प्राप्तिके लिये तीन बातोंका होना जरूरी है‒धनकी इच्छा हो, उसके लिये उद्योग किया जाय और भाग्य साथ दे । परन्तु परमात्मा इच्छामात्रसे मिलते हैं । कारण कि मनुष्यशरीर मिला ही परमात्माकी प्राप्तिके लिये है । अगर परमात्मा नहीं मिले तो मनुष्यजन्म सार्थक ही क्या हुआ ? इसलिये सांसारिक कामनाओंका त्याग करके केवल स्वरूपकी जिज्ञासा अथवा परमात्माकी लालसा जाग्रत् करो । इसीमें मनुष्यजन्मकी सार्थकता है ।

जबतक कामना (भोग और संग्रहकी इच्छा) रहती है, तबतक जीव संसारी रहता है । कामना मिटनेपर जब जिज्ञासा पूर्ण हो जाती है, तब जीवकी अपने अव्यक्त स्वरूपमें स्थिति हो जाती है । फिर वह स्वरूप जिसका अंश है, उसके प्रेमकी लालसा जाग्रत् होती है । स्वयं अव्यक्त होते हुए भी ज्ञानमें केवल अद्वैत रहता है और भक्तिमें कभी द्वैत होता है, कभी अद्वैत होता है । भक्तिमें भक्त अपनी तरफ देखता है तो द्वैत होता है और भगवान्‌की तरफ देखता है तो अद्वैत होता है अर्थात् अपनी तरफ देखनेसे मैं भगवान्‌का हूँ तथा भगवान् मेरे हैं’‒यह अनुभव होता है और भगवान्‌की तरफ देखनेसे सब कुछ केवल भगवान् ही हैं’‒यह अनुभव होता है । इस प्रकार द्वैत और अद्वैत‒दोनों होनेसे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे