May
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भगवान् रामायणमें कहते हैं–
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू ।
आएँ सरन तजऊँ नहिं ताहू ॥
करोड़ों ब्राह्मणोंकी हत्या करनेवाला भी यदि शरणमें आ जाय तो भगवान् उसके
पापको नष्ट कर देते हैं । एक जन्मके नहीं, अनेकों जन्मोंके पापका भी नाश कर देते
हैं ।
सनमुख होई जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
जीव जभी मेरे सम्मुख होता ही, तभी उसके अनन्त जन्मोंके पाप
नष्ट हो जाते हैं । इतना ही नहीं, शरणमें आ जानेपर उसे साधु ही मानना चाहिये ।
यहाँ यह प्रश्न होता है कि गीता ७/१५ में भगवान् कहते हैं, नराधम (दुष्कृत पुरुष)
मेरे शरण नहीं होते और रामायणमें भी कहा है–
पापवंत कर सहज सुभाऊ ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥
तब अत्यन्त पापी भगवान्की ओर लगेगा ही कैसे ? तभी तो भगवान्ने ‘चेत’ शब्द कहा है । भगवान्के
कानूनमें एक विलक्षणता है, वह समझनेकी है । भगवान् कहते हैं–‘यदि वह भक्तिमें लग
जाय तो मेरी ओरसे बाधा नहीं है, नीच-से-नीचके लिये उत्थानका दरवाजा खुला है ।
परन्तु भक्तका पतन नहीं हो सकता’–‘न मे भक्तः
प्रणश्यति’ (९/३१) । भगवान्के पथमें चलनेके लिये किसी भी प्राणीको रोक-टोक
नहीं है । उनके यहाँ उन्नतिके लिये कोई बाधा नहीं है । फिर प्रश्न होता है कि पापी
मनुष्य भगवान्का अनन्य भावसे किस कारण भजन करेगा ? उसमें कई कारण हो सकते हैं ।
यथा–
(१) पूर्वजन्मकी भक्तिके संस्कारसे ।
(२) भगवद्भक्तिमय वायुमण्डलके प्रभावसे ।
(३) भगवद्भक्तोंके अलौकिक अनुग्रहसे ।
(४) भगवान्की अचिन्त्य अहैतुकी कृपासे । या
(५) किसी आपत्तिमें पड़ जानेपर उस आपत्तिको दूर करनेमें अपनेको सर्वथा असमर्थ समझनेके कारण
भगवान्के प्रति भक्तिका उदय हो जानेसे ।
इस तरह और भी किसी कारणविशेषसे वह अनन्यभाक् होकर भजन कर सकता है । ‘अनन्यभाक्’ का अर्थ यहाँ तैलधारावत् निरन्तर चिन्तन
नहीं समझना चाहिये, क्योंकि अधिकारीकी तरफ भी तो देखना होगा । तैलधारावत् चिन्तनमें
तो बहुत समयसे साधन करनेवाले साधकोंको भी कठिनाई प्रतीत होती है, फिर
सुदुराचारियोंके द्वारा वह ऐसा क्योंकर सम्भव है । अतः अनन्यभाक्का
अर्थ यहाँ एक भगवान्का ही हो जाना है ‘न अन्यं
भजतीति अनन्यभाक्’ । उसके इष्ट, प्रापणीय
एकमात्र भगवान् ही हो जायँ, वह भगवान्के
शरणागत हो जाय–यही अनन्यभाक्का तात्पर्य है । वह भगवान्के सिवा और किसीका
आश्रय नहीं लेता । एकके आश्रित हो जाना, एकको ही सर्वोपरि समझना सुदुराचारीके
द्वारा ही सम्भव हो सकता है । जो ऐसा हो जाता है, उसको भगवान् परमप्रिय मानते हैं
।
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